नेतृत्व का संकट
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के हटने के जनमत-संग्रह के फैसले पर अलग-अलग तरह के विश्लेषण हो रहे हैं. लेकिन, सभी टिप्पणीकार इस बात पर सहमत हैं कि इस नतीजे का दूरगामी असर सिर्फ ब्रिटेन और यूरोप के भविष्य पर ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में होगा. वैश्वीकरण की प्रक्रिया की व्याप्ति के कारण विभिन्न देश आर्थिक […]
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के हटने के जनमत-संग्रह के फैसले पर अलग-अलग तरह के विश्लेषण हो रहे हैं. लेकिन, सभी टिप्पणीकार इस बात पर सहमत हैं कि इस नतीजे का दूरगामी असर सिर्फ ब्रिटेन और यूरोप के भविष्य पर ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में होगा. वैश्वीकरण की प्रक्रिया की व्याप्ति के कारण विभिन्न देश आर्थिक और राजनीतिक रूप से एक-दूसरे से गहरे तक जुड़े हुए हैं.
जनमत-संग्रह के नतीजे आने के साथ ही प्रमुख शेयर बाजारों तथा मौद्रिक मूल्यों में उथल-पुथल इस परिघटना का तात्कालिक परिणाम है जो आगामी दिनों में और सघन हो सकता है.
इसके साथ ही ब्रिटेन और यूरोप की राजनीति में जो हलचल आयी है, उससे भी वैश्विक राजनीतिक रंगमंच अछूता नहीं है. बहरहाल, ब्रेक्जिट को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए इसकी पृष्ठभूमि को खंगालना बहुत जरूरी है. इसके लिए हमें मौजूदा अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य को टटोलना होगा. बीते ढाई दशकों में नव-उदारवादी पूंजीवादी नीतियों ने दुनिया में समृद्धि और विकास का नया अध्याय रचा है, पर इस प्रक्रिया में धनी और गरीब के बीच विषमता की खाई भी लगातार बड़ी होती गयी है.
स्वाभाविक रूप से इस विषमता ने आम जनता को असंतोष, निराशा और बेचैनी से भर दिया है. जनता के क्षोभ को शांत करने और उसकी समस्याओं के समुचित समाधान कर पाने में राजनीतिक नेतृत्व बुरी तरह से विफल भी रहा है. राहत और सुधार के नाम पर जो नीतियां लागू हुईं, वे अपर्याप्त साबित हुईं. इससे जनता में यह संदेश भी गया है कि राजनीतिक नेतृत्व में उसकी परेशानियों के प्रति अनमनेपन का भाव है या फिर वह उन्हें दूर करने में सक्षम ही नहीं है.
वर्ष 2008 की भयावह आर्थिक महामंदी ने निराशा के इस माहौल को और गंभीर बना दिया और आज भी अर्थव्यवस्थाएं उस संकट से पूरी तरह उबर नहीं पायी हैं. पिछले दशक में आतंकवाद, आतंक के विरुद्ध संघर्ष तथा अफगानिस्तान और इराक पर अमेरिकानीत गठबंधन के सैन्य आक्रमण ने भी दुनिया को बड़े पैमाने पर अस्थिर कर दिया था.
इस अस्थिरता को महामंदी ने व्यापक आयाम दिया जिसके नकारात्मक परिणामों से कोई भी देश अछूता न रह सका. इस निराशा से उबरने की उम्मीद अमेरिका में बराक ओबामा, लैटिन अमेरिका में समाजवादी खेमे तथा अरब में क्रांतियों के उभार से बनी.
इस उभार का एक सिरा हमारे देश में मौजूदा दशक के शुरू में खड़ा हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़ता है. पूंजीवादी कॉरपोरेट की जकड़न से मुक्ति की जद्दोजहद में अमेरिका में पूंजीवाद के केंद्र वाल स्ट्रीट के विरुद्ध छात्रों और युवाओं का बड़ा समूह सड़क पर उतरा, तो यूरोप में उदारीकरण के कारण लागू नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे.
इन प्रतिरोधों से और इनके असर से हुए राजनीतिक बदलावों से उम्मीद बनी थी कि जनता की निरंतर बढ़ती मुश्किलों का हल निकलेगा तथा वैश्विक स्तर पर चल रही नीतियों की समीक्षा होगी. लेकिन इन अपेक्षाओं को धराशायी होने में अधिक समय नहीं लगा. अरब के जनांदोलन की परिणति भयानक गृहयुद्ध के रूप में हुई.
आर्थिक संकट से मुक्ति की चाह में यूरोप के कई देशों में सरकारें बनती और गिरती रहीं. अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में चल रहे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा आम अमेरिकियों के बड़े हिस्से को धुर पूंजीवादी और दक्षिणपंथी डोनाल्ड ट्रंप के उन्मादी भाषणों पर तालियां बजाते देख रहे हैं, तो दूसरी तरफ उन्हीं के पार्टी के बर्नी सांडर्स अमेरिकी मुख्यधारा की राजनीति के खिलाफ खड़े होकर युवाओं को आकर्षित कर रहे हैं.
यूनान में आर्थिक संकट से निकलने का दावा कर सत्ता में आयी समाजवादी सीरिजा यूरोपीय संघ के उन्हीं निर्देशों को लागू कर रही है, जिसका विरोध कर वह सत्ता में आयी थी. फ्रांस में बीते दो महीनों से मजदूरों और युवाओं की बड़ी तादाद आंदोलनरत है जिसे दबाने के लिए सरकार हरसंभव प्रयत्न कर रही है.
ब्रिटेन में सत्ताधारी कंजरवेटिव पार्टी और मुख्य विपक्षी लेबर पार्टी अपने ही सैद्धांतिक और नीतिगत अंतर्विरोधों की चपेट में हैं. ब्राजील में भी राजनीतिक संकट जारी है, तो वेनेजुएला की सरकार की साख निरंतर गिरती जा रही है. लोकतांत्रिक, उदारवादी और समाजवादी खेमे के अपने दृष्टिगत बौनेपन के कारण आम लोगों की परेशानियों का ठोस हल निकालने में असफलता ने दक्षिणपंथी, नस्लभेदी, अल्पसंख्यक विरोधी और अधिनायकवादी तत्वों को जननायक बनने का खतरनाक मौका दे दिया है.
डोनाल्ड ट्रंप से लेकर नाइजल फरागे, मरीन ला पेन, गोल्डन डॉन जैसी ताकतें पश्चिम में जनता को लामबंद कर पाने में सफल हो रही हैं. भारत समेत दक्षिण एशिया में भी राजनीति के यही तेवर देखने को मिल रहे हैं. इन तत्वों में राजनीतिक अनुभव और भविष्य को बेहतर बना सकने की समझ नहीं है.
संकीर्ण उन्मादी विचारों के कारण ये लोग जनता को भरमा पाने में सफल इसलिए हो जा रहे हैं क्योंकि लोग अपनी परेशानियों को लेकर बुरी तरह से बेचैन हैं और उन्हें बस कुछ राहत की उम्मीद दिख जाती है. वैश्विक स्तर पर नेतृत्वहीनता की ऐसी घोर निराशाजनक स्थिति का कोई दूसरा उदाहरण आधुनिक इतिहास में नहीं दिखता है. यह हमारे समय का सबसे भयानक संकट है.