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कहां गयीं वो मछलियां

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान बचपन की स्मृति में बारिश के संग मछलियों की अनेकों कहानियां हैं. देशी नस्ल की मछलियां लेकर नीरस चाचा आते थे. हम सब बच्चे एकटक उन काली मछलियों को देखते रहते थे. लेकिन समय के साथ देशी मछलियां गायब हो गयीं. अब तालाब, धार, नाले सब खेत बन गये […]

गिरींद्र नाथ झा

ब्लॉगर एवं किसान

बचपन की स्मृति में बारिश के संग मछलियों की अनेकों कहानियां हैं. देशी नस्ल की मछलियां लेकर नीरस चाचा आते थे. हम सब बच्चे एकटक उन काली मछलियों को देखते रहते थे. लेकिन समय के साथ देशी मछलियां गायब हो गयीं. अब तालाब, धार, नाले सब खेत बन गये हैं और वो काली मछलियां बस हमारी स्मृतियों में ही रह गयी हैं.

दरअसल, बिहार के पूर्णिया और अररिया जिले के कई इलाके मछुआरों के लिए प्रसिद्ध रहे हैं, इसे यहां मल्लाह भी कहा जाता है. इस इलाके में 90 के दशक तक मछली की कई देशी नस्लें बड़ी संख्या में पायी जाती थी. कोसी नदी की कई उपधाराएं इन इलाकों से गुजरती हैं, ऐसे में छोटी नदियों में जल प्रवाह बना रहता है. ऐसी नदियों को यहां ‘धार’ कहते हैं. लेकिन किसानी के बदले रूप ने धारों का भी रूप बदल दिया है साथ ही मल्लाहों की जिंदगी और जीविका को भी बदल दिया.

नहरों में समय पर पानी नहीं छोड़े जाने और बारिश की कमी से छोटी नदियां प्यासी ही रह जाती हैं. ऐसे में देशी नस्ल की मछलियां तो गायब हो ही गयीं साथ ही मछुआरा समुदाय भी अपने मूल काम को छोड़ कर खेती-बाड़ी या फिर मजदूरी के लिए बाहर जाने लगा है. पूर्णिया जिला के श्रीनगर प्रखंड के सिंघिया, संतनगर और चनका गांव में मछुआरों की कई बस्तियां हैं.

पूर्णिया से सटे अररिया जिला के औराही हिंगना इलाके में भी मछुआरों की स्थिति पर अध्ययन करने की जरूरत है. यह इलाका फणीश्वर नाथ रेणु का है, जिन्होंने अपने लेखन के जरिये इस इलाके की बोली-बानी को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया है. देशी नस्ल की मछिलयों को उन्होंने अपनी कथाओं में जगह दी थी. लेकिन आखिर ऐसी क्या परिस्थति आयी कि मछुआरा समुदाय अब हाइब्रिड नस्ल की तरफ भाग रहा है या फिर इस पेशे को ही छोड़ रहा है.

फणीश्वर नाथ रेणु कहते थे कि जूट, धान और माछ के बिना यह इलाका अधूरा है. एक समय में तो पूर्णिया जिला में ‘माछ’ का मतलब ‘जल अमृत’ होता था , लेकिन अब यहां भी बाहर की मछलियां बाजार में पैठ बना चुकी है. मीडिया इन समस्याओं को किस तरह ले रहा है, यह एक शोध का विषय है.

कोसी की उपधारा ‘कारी कोसी’ इन इलाकों से गुजरती है. कभी इसके तट पर मछुआरों की बस्ती थी. बस्तियां उजड़ चुकी हैं, लोगबाग पलायन कर रहे हैं और जो बचे हैं, वे बंगाल से हाइब्रिड मछलियां लाकर पाल रहे हैं या फिर खेती करने लगे हैं. उत्तर बिहार की प्रमुख मंडी गुलाबबाग के समीप हर सुबह बंगाल से मछलियां आती हैं.

मछुआरों की स्थिति का जायजा लेना भी जरूरी है, क्योंकि राजनीतिक दल भी चुनाव के वक्त इनका फायदा लेना चाहते हैं. इन सबके अलावा इन इलाकों में पोखरों की क्या स्थिति है, इसे भी जानना जरूरी है.

कभी यहां खूब पोखर हुआ करते थे, लेकिन अब सभी पोखर अपने हाल पर रो रहे हैं. इन सभी मुद्दों पर शोध कार्य होना चाहिए, ताकि लोगबाग यह जान पायें कि कोसी का इलाका किस तरह बदल रहा है और एक खास समुदाय का पलायन किस तेजी से बढ़ा है. साथ ही इस समुदाय ने किस तरह से अपने रोजगार का रूप ही बदल डाला है.

मछली पालन से जुड़े लोग अब किसान बन गये हैं या फिर अन्य राज्यों में मजदूरी करने लगे हैं. मछली की विभिन्न प्रजातियों के बारे में अब कोई जानकारी देनेवाला नहीं रह गया है. हालांकि, सरकार मछली पालन को बढ़ावा दे रही है, लेकिन इन सबके बावजूद देशी नस्ल की मछलियों को बचाने की बात नहीं हो रही है. यही वजह है कि टेंगरा, पोठिया, गैंचा, बामी, रेवा, मांगुर, इचना, कबई, छही आदि मछलियाें का इन दिनों दिखना भी दुर्लभ हो गया है.

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