हमारी मिट्टी की महक

बारिश की पहली बूंद पड़ चुकी है या अभी कहीं पड़नेवाली होगी. पहली बारिश के बाद तपती मिट्टी से जो गंध उठती है, उसके क्या कहने. शायद यह गंध हम शहरियों के अतीत को बताती है कि कभी हम भी मिट्टी से जुड़े थे, खेत की मिट्टी से. इसका अच्छा लगना जैसे हमारे जींस में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 29, 2016 6:06 AM

बारिश की पहली बूंद पड़ चुकी है या अभी कहीं पड़नेवाली होगी. पहली बारिश के बाद तपती मिट्टी से जो गंध उठती है, उसके क्या कहने. शायद यह गंध हम शहरियों के अतीत को बताती है कि कभी हम भी मिट्टी से जुड़े थे, खेत की मिट्टी से. इसका अच्छा लगना जैसे हमारे जींस में है. बारिश के बाद की रात में झिंगुरों की रुन-झुन, मेढकों की टर्राहट, केंचुओं का धरती से बाहर निकल आना. हरी घास पर लाल मखमली राम जी की गुड़ियों का फूलों की तरह चमकना. चिड़ियों का पंख फैला कर पानी में नहाना.

बारिश से लय-ताल बांधते विशालकाय वृक्षों के पत्तों की थरथराहट. उन पर गिरती बूंदों का संगीत. घड़े, सुराही और कुल्हड़ के पानी की मिट्टी वाली खुशबू और सकोरो में मिलनेवाले दही का स्वाद. एक तरफ बारिश का संगीत तो दूसरी तरफ पेड़ों पर पड़े झूलों की ऊंची पींगें.

पुराने साहित्यकारों, कवियों से लेकर हिंदी फिल्में तक बारिश की फुहारों और मिट्टी की गंध की दीवानी रही हैं.

हाल ही में खबर आयी थी कि एक कंपनी ने मिट्टी की गंध वाला एक परफ्यूम बनाया है, जबकि आजकल कई कंपनियां अपने उत्पाद को बेचने के लिए मिट्टी को ऐसे दिखाती हैं, मानो वह जहर हो और स्वास्थ्य के लिए कितनी हानिकारक हो.

कुछ दिन पहले अमेरिका में रहनेवाले एक लड़के ने बताया था कि वहां आजकल बच्चों के खेलने के लिए विशेष रूप से मिट्टी के पार्क बनाये जाते हैं, जिससे कि वे वहां मिट्टी में लोट-पोट हो सकें. अब वहां माना जाने लगा है कि मिट्टी में खेलने से बच्चों के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है.

पुराने जमाने से हमारे यहां मिट्टी के महत्व को समझा गया है. यह बेवजह नहीं है कि लोग जब अपने घर-बार से दूर चले जाते हैं, और साल-दो साल में लौटते हैं, तो देश की धरती पर कदम रखते ही मिट्टी को माथे से लगाते हैं. मिट्टी माने अपनी धरती, अपना देश, जिसके अन्न-जल, शाक-भाजी से हमारा जीवन चलता है. पूजा-पाठ के अवसरों पर आज भी उस जगह को पीली मिट्टी से लीपा जाता है. पीली मिट्टी से बने गौरा-गणेश रखे जाते हैं.

एक जमाने में जब घर-घर चूल्हे बनते थे, तो खाना पकाने के बाद उनकी कालिख को मिट्टी से पोता जाता था. घर की दीवारों पर झांझियां बनाने या दीवाली काढ़ने के लिए पीली मिट्टी, गेरू और चावल का प्रयोग होता था. घर-आंगन जब कच्चे होते थे, तब आंगन और दीवारों को मिट्टी और गोबर से ही लीपा-पोता जाता था.

एक जमाने में लोगों के घर मिट्टी के बने होते थे. उन पर फूस के छप्पर होते थे. अब वे लोग जिनके पास अकूत धन-दौलत और संपदा है, वे भी ऐसे घरों में रहना चाहते हैं. मुंबई के पास मड आइलैंड में एक से एक नवकुबेरों के घर हैं. वे इनमें रहने का अनुभव लेने के लिए छुट्टियों में यहां आते हैं. मिट्टी के घरों के बारे में कहा जाता है कि वे सरदी में गरम और गरमी में ठंडे रहते हैं. कई बड़े होटल अपनी यूएसपी मिट्टी के बरतनों में खाना परोसने को बताते हैं. बहुत से होटलों में मिट्टी और लकड़ी के वे खिलौने प्रदशर्नियों में प्रदर्शित किये जाते हैं, जो अब गरीब बच्चों की पहुंच से बाहर हैं.

अगर किसानों और कृषि वैज्ञानिकों से पूछें, तो वे बतायेंगे कि किस रंग की मिट्टी किस फसल के लिए अच्छी होती है. पीली मिट्टी में कौन सा अनाज अधिक उपजता है और काली मिट्टी या लाल मिट्टी में कौन-कौन सी फसलें अधिक लाभ देती हैं.

मिट्टी हमें जीवन देती है, हम भी उसे कुछ दें. कम-से-कम जहर भरे कीटनाशकों से प्रदूषित तो न करें.

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

kshamasharma1@gmail.com

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