वेतन-वृद्धि के बाद

उम्मीदों के अनुरूप ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अपनी मंजूरी की मुहर लगा दी है. हालांकि वेतन आयोग की कई सिफारिशों को सरकार ने संशोधन के साथ मंजूरी दी है, जिसके विस्तृत विवरण के आधार पर ही कर्मचारियों को होनेवाले वास्तविक लाभ का आकलन हो सकेगा. फिलहाल आयोग की सिफारिशों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 30, 2016 1:39 AM

उम्मीदों के अनुरूप ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अपनी मंजूरी की मुहर लगा दी है. हालांकि वेतन आयोग की कई सिफारिशों को सरकार ने संशोधन के साथ मंजूरी दी है, जिसके विस्तृत विवरण के आधार पर ही कर्मचारियों को होनेवाले वास्तविक लाभ का आकलन हो सकेगा. फिलहाल आयोग की सिफारिशों के आधार पर माना जा रहा है कि इससे केंद्र सरकार के कर्मचारियों के मूल वेतन में करीब सवा चौदह फीसदी, जबकि भत्तों को मिला दें तो कुल वेतन में करीब साढ़े तेइस फीसदी का इजाफा होगा.

इस वेतनवृद्धि को जनवरी, 2016 से लागू करने का प्रस्ताव है और इससे सरकारी खजाने पर सालाना करीब एक लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार अनुमानित है. चूंकि सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों की प्रस्तावित वेतन-वृद्धि को ध्यान में रख कर चालू वित्त वर्ष के बजट में 70 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान कर दिया था, इसलिए सरकार को करीब 30 हजार करोड़ रुपये ही अलग से जुटाने पड़ेंगे. माना जा रहा है कि इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें यूपीए सरकार के दिनों की अपेक्षा काफी कम हैं और तेल आयात के मद में सरकार का खर्चा भी कम हुआ है, ऐसे में केंद्र सरकार के लिए अतिरिक्त रकम जुटाना बहुत मुश्किल नहीं होगा. लेकिन, इससे आगामी दिनों में कुछ राज्य सरकारों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.

यह तय है कि राज्यों के कर्मचारी भी अपना वेतन केंद्रीय कर्मियों की बराबरी में देखने के लिए देर-सबेर जोर लगायेंगे. हरियाणा, पंजाब, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात आदि की तुलना में गरीब और पिछड़े माने जानेवाले राज्यों के लिए अपने कर्मचारियों की मांग मानने का अर्थ होगा तात्कालिक तौर पर शेष जनता की आंखों से उतरने का खतरा उठाना, क्योंकि अपनी खस्ता वित्तीय हालत के बीच कर्मचारियों की वेतन-वृद्धि के लिए उन्हें लोगों पर अतिरिक्त टैक्स लगा कर रकम जुटानी होगी. इससे जनता पर महंगाई की मार बढ़ेगी और लगातार दो साल से सूखे की मार झेल रही आम आबादी के लिए बढ़ी हुई महंगाई से निबटना टेढ़ी खीर साबित होगी.

फिलहाल, राज्य सरकारों की परेशानी से इतर, अगर मौजूदा वेतन-वृद्धि के बारे में ही सोचें तो यह केंद्र सरकार के करीब 47 लाख मौजूदा कर्मचारियों और 52 लाख पेंशनरों के लिए एक खुशखबरी है. उनके खाते में हर माह अधिक पैसा आयेगा, तो उनकी खरीद क्षमता बढ़ेगी और गरिमापूर्ण जीवन जी सकने की उनकी स्थितियां पहले की तुलना में बेहतर होंगी. देश में फिलहाल औसतन चार लोगों का एक परिवार मानने का चलन है. इस आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल के बाद केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनरों की खरीद क्षमता बढ़ने से एक साथ कम-से-कम चार करोड़ लोगों के लिए जीने के हालात पहले की तुलना में बेहतर होंगे. लेकिन, जैसा कि खुद प्रधानमंत्री बार-बार कहते हैं, यह देश सवा सौ करोड़ लोगों का है. इसलिए यह प्रश्न भी पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार शेष कामगार आबादी की आमदनी और जीवन जीने की स्थितियों में इजाफा करने के कदमों पर भी विचार करेगी? यह प्रश्न इसलिए भी पूछा जाना चाहिए, क्योंकि राष्ट्र एक विराट सह-जीवन की व्यवस्था है और सह-जीवन की यह व्यवस्था तभी सहज-सुगम बनी रह सकती है, जब लोगों के बीच बाकी बातों के साथ-साथ आमदनी के मामले में भी इतनी असमानता न हो कि कोई वर्ग बेहतरी के उपलब्ध अवसरों का इस्तेमाल सिर्फ अपने लिए करने लग जाये. परंपरागत ढर्रे पर चलते हुए इस प्रश्न के उत्तर में वही पुराना तर्क दोहराया जा सकता है कि केंद्रीय कर्मियों के वेतन में वृद्धि के साथ बढ़ी हुई क्रय-क्षमता के अनुरूप मांग बढ़ेगी, तो कंज्यूमर गुड्स, ऑटोमोबाइल और रियलिटी जैसे सेक्टर में उछाल आयेगा. यह उछाल एक पुश फैक्टर की तरह काम करते हुए शेष कामगार और उनके परिजनों के भरण-पोषण की स्थितियों को बेहतर बनायेगा. यह तर्क सुनने में चाहे जितना भरोसेमंद लगे, लेकिन आजादी के बाद से विभिन्न वेतन आयोगों की सिफारिशों के आधार पर की गयी वेतन वृद्धि के व्यावहारिक नतीजे इस तर्क के विपरीत जाते हैं. मिसाल के लिए देश की खेतिहर आबादी, विशेष कर किसानों, की आमदनी में हुई वृद्धि को ही लें. विशेषज्ञ बताते हैं कि आजादी के बाद के छह दशकों में केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में 225 गुना वृद्धि हुई है.

दूसरे वेतन आयोग के समय (1959) जिस केंद्रीय कर्मचारी का वेतन 80 रुपये मासिक था, सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप 18 हजार रुपये या इससे भी ज्यादा होने की संभावना है. क्या ऐसी ही ऊंची और आशावर्धक वृद्धि किसानों की आय में भी हुई है? विशेषज्ञ बताते हैं कि 1970 के दशक से अब तक उच्च पदस्थ व्यक्तियों (जैसे कि प्रोफेसर) के सेवा-मूल्यों में जिस तरह की वृद्धि हुई है, खेतिहर आबादी (जैसे कि किसान, छोटे कारीगर, मछुआरों आदि) के उत्पाद से आय में इजाफा उस अनुपात में नगण्य है. जाहिर है, शेष कामगार आबादी की आमदनी बढ़े, सरकार को इसके उपायों के लिए भी चिंतित होना चाहिए.

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