दहेजुआ फंडा भी है एमबीए की पढ़ाई

।। सत्यप्रकाश पाठक।। (प्रभात खबर, रांची) ए भाई बेटा-बेटी की शादी भी बड़का हेडक है. कुछ पतै नहीं चलता कि का करें, देखिए ना बेबिया की शादी में ठगा गये. एतना ले दे के एमबीए लड़का से बिआह किये..सब खतम, लड़कवे फरजी निकल गया. देखने गये थे, तो टाई कोट पहिन कर मोबाइल में ऑफिस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 22, 2014 3:40 AM

।। सत्यप्रकाश पाठक।।

(प्रभात खबर, रांची)

ए भाई बेटा-बेटी की शादी भी बड़का हेडक है. कुछ पतै नहीं चलता कि का करें, देखिए ना बेबिया की शादी में ठगा गये. एतना ले दे के एमबीए लड़का से बिआह किये..सब खतम, लड़कवे फरजी निकल गया. देखने गये थे, तो टाई कोट पहिन कर मोबाइल में ऑफिस वालन को डांटिए रहा था, बेटी भी मिली थी, बड़का दामाद भी बतिया कर देखे थे और ओके किया था..फरजी निकल गया..बहुत बुरा ठगाये हो. माथा पकड़ कर जब चौबे जी अपना दुखड़ा रो रहे थे, तो वर्मा जी दुखी तो हुए, लेकिन तसल्ली भी मिली कि इस मर्ज के वह कोई अकेला मरीज नहीं हैं.

उन्हें भी याद आ गया कि कैसे समाज के सम्मानित और गजटेड अफसर रहे सिन्हा जी ने उनको फांसा था. कहा था : बेटा पुणो में एमबीए कर नौकरी कर रहा है. अपनी ही कमाई से वहीं फ्लैट के लिए एडवांस दिया है. शादी हो गयी, तो फ्लैट तो दूर, लड़का नौकरी ही छोड़ घर में बैठ गया. बाद में पता चला कि दामाद बाबू तो शुरू से ही गांधी जी छाप विद्यार्थी रहे हैं और एमबीए पुणो के किसी अच्छे संस्थान से नहीं, लोकल चवनिया इंस्टीटय़ूट से पास किये हैं. शिकायत पर सिन्हा जी तमतमा गये : हमने कब कहा था जी कि लड़का कहां से पढ़ा है और आपने पूछा कब था, हमने तो बताया था कि पुणो में एमबीए कर नौकरी कर रहा है. हमने नौकरी की जगह बतायी थी, पढ़ाई की नहीं. जनाब ये दो वाकया काफी हैं देशभर में कुकुरमुत्ते की तरह फैलते दोयम दरजे की एमबीए जैसी संस्थानों की हकीकत और उसके साइड इफेक्ट बताने के लिए.

पूरा दहेजुआ फंडा है. अब विश्वकर्मा जी के लड़के मटरुवा को ही देखिए.. खींच-तीर कर 25 साल में बीए पास किया, तो आगे गली में चलनेवाले एमबीए इंस्टीटय़ूट वालों ने पकड़ लिया, मैट-कैट किनारे पहले एडमिशन लिया. बैंक से सेटिंग कर एजुकेशन लोन भी इंस्टीटय़ूट वालों ने ही दिलवा दिया. आखिर टारगेट पूरा करना था, पुश्तैनी आलू गोदाम चलानेवाले संस्थान के मालिक जिंदगी भर बोरा गिने, अब नये धंधे में स्टूडेंट गिन रहे हैं.

टीचरों के वेतन को भी एडमिशन से जोड़ दिया था.. खैर, बात मटरुआ की हो रही थी, तो मटरू बाबू अब अचानक सफेद शर्ट, कोट-टाई और बगल में लैपटॉप लटकाये किसी कॉरपोरेट हाउस के बड़े अफसर लगते हैं. रैपिडैक्स खरीद कर दिस-दैट भी करने लगे हैं. इस बीच विश्वकर्मा जी भी बेटे की तरक्की की गाथा गा-गाकर चक्कर चलाये हुए थे. हद तो तब हो गयी, जब उन्होंने भी अपने होनहार का मोटी रकम में सौदा कर लिया. नौकरिया मिली तो ठीक, नहीं तो बढ़ई का धंधा क्या खराब है. इसी में पूंजी लगा देंगे. भला हो इंस्टीटय़ूट वालों का. अब कोई भला आदमी फंसता है, तो अपनी बला से.

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