इंसाफ के लिए उठी सदाएं

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार ऐसा क्यों होता है कि रीति-रिवाज, परंपरा, संस्कृति या मजहबी रहनुमाओं से महिलाओं का ज्यादा टकराव होता है? ऐसा क्यों होता है कि जब भी मजहबी कायदे-कानून में बराबरी की आवाज उठती है, तो ऐसी सदा स्त्रियों के लिए या स्त्रियों की तरफ से ज्यादा आती है? जब महिलाएं आवाज उठाती हैं, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 1, 2016 12:31 AM
नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
ऐसा क्यों होता है कि रीति-रिवाज, परंपरा, संस्कृति या मजहबी रहनुमाओं से महिलाओं का ज्यादा टकराव होता है? ऐसा क्यों होता है कि जब भी मजहबी कायदे-कानून में बराबरी की आवाज उठती है, तो ऐसी सदा स्त्रियों के लिए या स्त्रियों की तरफ से ज्यादा आती है? जब महिलाएं आवाज उठाती हैं, तो उन्हें ही गलत ठहराने की मुहिम शुरू हो जाती है. उन पर धर्म से भटकने और मजहब को बदनाम करने के इलजाम लगने लगते हैं.
कुछ भी कहिये, मर्दिया ताकत है बड़ी जबरदस्त! उसका ताना-बाना, उसकी मजबूत सत्ता की नींव काफी गहरी है. अपनी ताकत और ताने-बाने से मर्दिया सत्ता हर विचार, दर्शन या मुहिम को अपने हिसाब से मोड़ लेती है. चाहे मजहब के उसूल हों या फिर देश का संविधान, सब ताक पर रखे रह जाते हैं. मर्दिया सत्ता अपने हिसाब से चीजों की व्याख्या करती है और उसी के मुताबिक नियम-कानून बनाती और चलाती है.
इंसाफ, बराबरी, रहम, मोहब्बत, इंसानी इज्जत- ये सब इसलाम के मूल्य हैं. मर्दों ने इंसाफ और बराबरी को भी अपने हिसाब से खुद ही तय कर लिया कि मुसलमानों के लिए क्या सही है. मसलन, बहुविवाह के बारे में कुरान के विचार को पढ़ें, तो पता चलता है कि वह एक से ज्यादा शादी की इजाजत नहीं देता है, बल्कि वह तो एक वक्त में एक से ज्यादा शादी करने पर अंकुश लगाने की बात करता है.
कुरान के आदर्श का मतलब मर्दों ने अपने हक में निकाल लिया. इसके जरिये वे इस नतीजे पर पहुंच गये कि उन्हें एक साथ चार बीवियां रखने की इजाजत है. (हालांकि, आज के वक्त में कोई ऐसा करता दिखता नहीं है.) नतीजा, मुसलमान मर्दों ने इसे अपना मजहबी हक मान लिया. यही नहीं इन्हीं की वजह से मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किये जानेवाले ढेर सारे अफवाहों में एक यह भी शामिल है.
वैसे, मजहब और मजहब के नाम पर बोलने में काफी फर्क है. मजहब कहता है, खुदा की नजर में हर बंदा बराबर है. मजहब के माननेवाले सोचते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है? वे तर्क तलाशते हैं और साबित करने की कोशिश करते हैं कि मर्द नाम का जीव बरतर यानी श्रेष्ठ है. मजहब क्या है, क्या बताता है, क्या कहता है, क्या चाहता है- इन सब बातों को बताने के काम पर भी मर्दिया सोच का कब्जा है. उनकी सोच ही मजहब हो गयी है. उनकी राय पत्थर की लकीर हो गयी है. उनके ख्याल जन्नत और दोजख का दरवाजा खोलने लगे हैं. जाहिर है, जब तक जेहन में इंसाफ और बराबरी की रूहानी सोच नहीं रहेगी, किसी की भी सोच इकतरफा ही होगी. ऐसा नहीं है कि मजहब जाननेवाले सभी मर्द ऐसा सोचते हैं. लेकिन ऐसे लोगों की तादाद कम है, जो सिर्फ मर्दिया नजरिये से धर्म को नहीं देखते हैं.
अगर ये बातें अटपटी लग रही हों, तो जरा हम चंद चीजों पर गौर करें. ऐसा क्यों है कि मंदिरों में जाने के लिए महिलाओं को आंदोलन करना पड़ता है? क्या हमने कभी सवर्ण हिंदू मर्दों को मंदिर में खुद प्रवेश करने के लिए आवाज उठाते सुना है? ऐसा क्यों है कि महिलाओं को ही मजार में हर जगह जाने की इजाजत के लिए सड़क पर आना पड़ता है? ऐसा क्यों है कि कभी किसी मर्द के लिए यह सवाल नहीं पूछा गया कि वह नमाज पढ़ा सकता है या नहीं?
स्त्री-पुरुष की यकसां इमामत कर सकता है या नहीं? ऐसा क्यों है कि जायदाद में हक पाने के लिए पुरुषों की जमात ने कभी अपने लिए कानून की मांग नहीं की? ऐसा क्यों नहीं हुआ कि कोई शकील, कोई समी, कोई रिजवान, कोई रूमी तीन तलाक के अपने ‘जबरिया’ हक को खत्म करने के लिए कोर्ट की देहरी पर पहुंच गया हो?
ऐसा क्यों है कि मर्दों ने कभी अपने साथ होनेवाली ‘हकतलफी’ खत्म करने के लिए घर-परिवार के दायरे में बराबरी का कानून बनाने की मांग नहीं की? मसलन, दहेज, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा, बलात्कार, शादी-शुदा जिंदगी में उत्पीड़न, एक मजलिस में तीन तलाक, बहुविवाह, हलाला के खिलाफ, जायदाद में बराबरी के हक के लिए कानून, निकाहनामा में मर्दों के हकों की हिफाजत की गारंटी के वास्ते कोई आवाज तो नहीं उठती है. इन सबकी जरूरत तो स्त्रियों के वास्ते ही हुई. हां, मर्दों ने हर ऐसे कानूनी हिफाजत के ‘दुरुपयोग’ की बात जरूर उठायी.
तनिक रुक कर यह भी सोचना चाहिए कि समाज सुधार आंदोलन या समाजी बेदारी की मुहिम का बड़ा हिस्सा महिलाओं की समाजी हालत सुधारना क्यों होता रहा है. इसका इतिहास है. सुधार आंदोलन, बेदारी मुहिम और हिफाजती कानून की जरूरत उनके लिए होती है, जिन्हें समाज ने कमजोर बना कर या सदियों से दबा कर रखा है. हर धर्म और जाति की महिलाएं, मर्दों के मुकाबले वंचित समुदाय हैं. इसलिए मजबूत मर्दों को कभी अपने लिए खास मुहिम या कानूनों की जरूरत नहीं पड़ी. क्योंकि सामाजिक रीति-नीति से लेकर कायदे-कानून तक सब उनके ही तो हैं. उनके ही हितों की हिफाजत करते आ रहे हैं.
एक मजलिस में तीन तलाक और बहुविवाह को खत्म करने, जायदाद में बराबर की हिस्सेदारी या धार्मिक स्थलों में इबादत की इजाजत की मांग, महिलाओं के हक की मांग हैं. ये हक उनकी इज्जत भरी जिंदगी के लिए जरूरी हैं.
जरा फर्ज करें, सब उलट-पुलट हो गया है. वे सारे हक जो अब तक मर्दों के हाथों में थे, महिलाओं के पास आ गये हैं. अब महिलाएं जब चाहें, सोते-जागते, होश-बेहोश, बात-बेबात, बताये-बिना बताये, टेलीफोन-एसएमएस या व्हॉट‍‍्सएप्प पर इकट्ठे तीन बार तलाक, सोच कर-बोल कर-लिख कर दे सकती हैं. एक झटके में अपने शौहर को आदाब कह कर अपनी जिंदगी से विदा कर सकती हैं.
कैसा होगा यह सूरतेहाल? क्या तब मर्द इसे इंसाफ मान कर चुपचाप बैठे रहेंगे? क्या वे कुछ नहीं बोलेंगे? क्या उनके साथ यह बराबरी का सुलूक होगा? क्या इसे इंसाफ और बराबरी का इंसानी उसूल कहा जायेगा? अगर ये सूरतेहाल ठीक नहीं कही जा सकती है. तो आज अगर स्त्रियां ऐसी सूरत को बदलने के लिए आवाज उठा रही हैं, तो ये गलत कैसे हो जायेगा?

Next Article

Exit mobile version