।। राजीव रंजन झा।।
(संपादक, शेयर मंथन)
भारत में आम तौर पर लोग स्विट्जरलैंड को रहस्यमयी स्विस बैंकों के कारण से जानते हैं. इसके शहर दावोस में हर साल सारी दुनिया के दिग्गज उद्योगपति इकट्ठा होते हैं और विश्व अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा के बारे में मंथन करते हैं, जिसे वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूइएफ) के नाम से जाना जाता है. कुछ आलोचक कहते हैं कि यह आयोजन विश्व के सबसे धनाढ्य लोगों के सैर-सपाटे और पिकनिक से ज्यादा कुछ नहीं. मगर इस बार डब्ल्यूइएफ से जो सुर्खियां आयी हैं, उनकी उम्मीद इस मंच से शायद ही किसी को रही हो. इस मंच पर आर्थिक असमानता की बात उठी और उसे विश्व अर्थव्यवस्था के लिए सबसे अहम खतरे के रूप में पहचाना गया. डब्ल्यूइएफ के मुताबिक अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई साल का सबसे बड़ा वैश्विक खतरा है. इसे लगता है कि आनेवाले एक दशक में यह बढ़ती असमानता पूरे विश्व में गंभीर नुकसान पहुंचानेवाली है.
लखनऊ की एक तसवीर को ऑक्सफेम ने अपनी रिपोर्ट में लगाया है. रिपोर्ट में लखनऊ की एक झुग्गी बस्ती है, जिसके पीछे संपन्न मध्य वर्ग की एक इठलाती हाउसिंग सोसाइटी दिख रही है. रिपोर्ट कहती है कि विश्व में केवल 85 लोगों के पास कुल 1,700 अरब डॉलर की संपत्ति है, जो विश्व की सबसे गरीब आधी आबादी (साढ़े तीन अरब लोग) की कुल संपत्ति के बराबर है. रिपोर्ट कहती है, चरम आर्थिक असमानता कई कारणों से नुकसानदेह व चिंताजनक है. यह न केवल नैतिक सवाल उठाती है, बल्कि आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को भी नुकसान पहुंचाती है. इससे सामाजिक समस्याएं कई गुना बढ़ सकती हैं. अन्य असमानताएं भी बढ़ती हैं, जैसे पुरुष और स्त्री की असमानता.
रिपोर्ट की कुछ बातों से लगता है कि कहीं इन्हें भारत को ध्यान में रख कर ही तो नहीं लिखा गया! रिपोर्ट कहती है कि संपत्ति कुछ गिने-चुने हाथों में सिमट जाने पर यह सरकारी नीति-निर्माण को अपने कब्जे में ले लेती है, नियमों को धनाढ्यों के पक्ष में तोड़ा-मरोड़ा जाने लगता है और इसका नुकसान बाकी सारे लोगों को होता है. इन चीजों के कारण लोकतांत्रिक शासन क्षीण होता है, सामाजिक ताना-बाना टूटता है और सभी लोगों के लिए समान अवसर नहीं रह जाते हैं. अपने देश में पिछले कुछ सालों में जिस तरह से विशालकाय भ्रष्टाचार के मामले लगातार सामने आये हैं, उनके संदर्भ में ये बातें क्या बिल्कुल सटीक नहीं हैं?
सवाह है कि इनसे बचने का उपाय क्या है? ऑक्सफेम की रिपोर्ट कहती है कि नीतियों पर संपत्ति के इस प्रभाव को रोकना तब तक संभव नहीं होगा, जब तक साहसिक राजनीतिक समाधान न तलाशे जायें. इसके बिना सरकारें धनी वर्ग के हित में ही काम करती रहेंगी, जबकि आर्थिक और राजनीतिक असमानताएं बढ़ती रहेंगी. ये असमानताएं कैसे बढ़ रही हैं, इसकी कुछ बानगियां देखें. पूरे विश्व की आधी संपत्ति केवल एक प्रतिशत लोगों के पास है. यह संपत्ति 1,10,000 अरब डॉलर की है. विश्व की सबसे गरीब आधी आबादी के पास जितनी कुल संपत्ति है, उसकी तुलना में यह 65 गुना ज्यादा है. सबसे गरीब 3.5 अरब लोगों के पास कुल जितनी संपत्ति है, उतनी संपत्ति केवल सबसे धनी 85 लोगों के पास मौजूद है. इतना ही नहीं, अमीर लोग बीते सालों में और भी अमीर होते गये हैं, यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि 1980 से 2012 के बीच विेषण में शामिल 26 देशों में से 24 देशों में सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की आय में हिस्सेदारी बढ़ी है. अमेरिका में 2008 के वित्तीय संकट से उबरने के लिए जो प्रयास किये गये, उसका भी ज्यादातर लाभ इसी धनाढ्य वर्ग ने बटोर लिया. यह रिपोर्ट बताती है कि 2009 से अमेरिका में जो वृद्धि हासिल की गयी, उसका 95 प्रतिशत हिस्सा सबसे धनी एक प्रतिशत लोगों के पास चला गया, जबकि नीचे से 90 प्रतिशत आबादी पहले से ज्यादा गरीब हो गयी.
समाधान के लिए सलाह यही है कि बाजारों का ज्यादा मजबूत ढंग से नियमन किया जाये, जिससे समानता के साथ टिकाऊ विकास हो सके. साथ में धनी वर्ग की शक्ति पर अंकुश लगाया जाये, जिससे वे राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित न कर सकें और अपने हितों के अनुकूल नीतियां न बनवा सकें. लेकिन यह इतना आसान नहीं, जितना हम सोचते हैं. जब ऑक्सफेम यह अपील करता है कि डब्ल्यूइएफ के सदस्य जिन देशों में निवेश और कामकाज करते हैं, वहां वे करों से बचने का प्रयास न करें, तो क्या वोडाफोन मामला तुरंत ध्यान में नहीं आता? टैक्स हैवेन का लाभ न उठाने की ऑक्सफेम की सलाह भारत में निवेश करनेवाली विदेशी कंपनियां कितना मानेंगी? जो देश आर्थिक असमानता घटाने में कुछ कामयाब हुए हैं, उनके अनुभवों के आधार पर ऑक्सफेम की सलाह है कि वित्तीय गोपनीयता और करों से बचने की प्रवृत्ति खत्म की जाये. पर भारत में कभी रिलायंस इंडस्ट्रीज सीएजी की ऑडिटिंग से बचना चाहती है, तो कभी दिल्ली की बिजली कंपनियां सीएजी की ऑडिटिंग से बचने के लिए कानूनी कवच पहनना चाहती हैं.
ऑक्सफेम की रिपोर्ट और उस पर डब्ल्यूइएफ में चर्चा से किसी क्रांति की शुरुआत नहीं होनेवाली. दावोस उन्हीं एक प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधि क्लब है, जिनके पास विश्व की संपदा का अकूत हिस्सा जमा है. लेकिन अब इस अभिजात्य क्लब को भी एहसास हो रहा है कि विकास के नाम पर चुनिंदा हाथों में अथाह संपत्ति का होना अंतत: उनके अस्तित्व के लिए भी खतरा बन सकता है. दावोस में चर्चा हो रही है कि जो विकास समावेशी नहीं होगा, वह टिकाऊ नहीं होगा. यह विडंबना ही है कि जहां मनमोहन सिंह का समावेशी विकास का मंत्र विश्व मंच पर गूंज रहा है, वहीं पूंजी और राजसत्ता के अनैतिक गठजोड़ से उपजी वो तमाम बुराइयां भी उनके शासन के दौरान भारत में अपने चरम पर पहुंची हैं, जिन्हें अब विश्व मंच पर बड़े खतरे के तौर पर पहचाना जा रहा है.
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी देशों की पूंजीवादी व्यवस्था ने कुछ मानवीय चेहरा अपनाने की कोशिश की थी, जो पूंजीवाद को टिकाऊ बनाने की चिंता का नतीजा थी. लेकिन साम्यवादी मॉडल के बिखरने और यूरोप से इसके खात्मे के बाद एक बार फिर पूंजीवाद ने किसी भी कीमत पर मुनाफा कमाने का रास्ता अपना लिया. अब पश्चिमी देशों को भी एहसास होने लगा है कि यह रास्ता खतरनाक है. लेकिन सवाल उठता है, इन सबके बीच भारत कहां है? भारत उसी रास्ते पर बढ़ने को आतुर दिख रहा है, जिस रास्ते पर पश्चिमी देश ठहर कर सोचने लगे हैं. हमें उनका हाल देख कर पहले ही खुद को संभाल लेना चाहिए. सबको शिक्षा और उन्नति के समान अवसर देने का कोई विकल्प नहीं है.