धनखेतों में पहुंचा मेरा मन
प्रभात रंजन कथाकार गांव से राजन भइया का फोन आया था. कह रहे थे गांव में खूब बारिश हो रही है. आषाढ़ का महीना और गांव में बारिश की बात सुन कर मन धान के खेतों में चला गया. गांव छोड़े जमाना हो गया, लेकिन आज भी बारिश होते ही मन का किसान हरा हो […]
प्रभात रंजन
कथाकार
गांव से राजन भइया का फोन आया था. कह रहे थे गांव में खूब बारिश हो रही है. आषाढ़ का महीना और गांव में बारिश की बात सुन कर मन धान के खेतों में चला गया. गांव छोड़े जमाना हो गया, लेकिन आज भी बारिश होते ही मन का किसान हरा हो जाता है. करीब दो साल के सूखे के बाद खेतों की ओर धानरोपनी के लिए जानेवालों की आमदरफ्त बढ़ी हुई है.
अब वह जमाना नहीं रहा कि किसानों के घर में धानरोपनी के लिए जानेवालों के लिए पनपियाई बनता था. पनपियाई यानी गेहूं या मड़ुआ की रोटी के ऊपर नमक-मिर्च-सरसों के तेल की चटनी या कभी-कभी कोई सूखी सब्जी भी. हम उतरा बिहारियों के लिए धनरोपनी और धान की कटाई सबसे बड़े उत्सव की तरह होते आये हैं.
आज माहौल बदल चुका है.
अब धान रोपनेवाले मजदूर न अनाज की मजदूरी लेते हैं, न उनको पनपियाई से मतलब रहता है, लेकिन आषाढ़ आते ही खेतों में धान के छोटे-छोटे बिछड़े रोपने के लिए उनके कदम वैसे ही उठते हैं. दिनकर जी की कविता याद आ रही है- ‘कवि अषाढ़ की इस रिमझिम में/धनखेतों में जाने दो/कृषक सुंदरी के स्वर में/ अटपटे गीत कुछ गाने दो.’
हालांकि मैंने कभी किसी स्त्री को खेत में जाकर धान रोपते हुए नहीं देखा, लेकिन अनेक स्थानों पर स्त्रियां धान रोपने जाती भी हैं. बहरहाल, वह क्या है कि गांव छूटे हुए जमाना हो गया, लेकिन आषाढ़-सावन के महीने में मन आज भी यही जानने को व्याकुल रहता है कि गांव में वर्षा कैसी हो रही है?
आषाढ़ आते ही देख रहा हूं कि फेसबुक पर हिंदी के कवि-लेखक-विद्वान लोग कालिदास से लेकर मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ तक को याद करने में लगे हुए हैं, जबकि मैं धानरोपनी के दृश्यों को याद करने लगता हूं. धारधार होती बारिश और खेतों में धान रोपते किसान मजदूर, छाता लगा कर उनको देखने जाते पिता- मन के परदे से यह दृश्य कभी हटता ही नहीं है.
पापा से, भाई से जब भी खेती-बाड़ी को लेकर बात होती है, तो सालों से यही बात होती है कि अब धान-गेहूं की खेती में कोई फायदा नहीं रहा. जितना लगाते हैं, उतना भी नहीं निकल पाता है. पारंपरिक खेती को छोड़ने की बात हर साल करते हैं. मेरे पिता तो कृषि के ही जानकार रहे हैं, जीवन भर उन्होंने इसी विभाग में काम किया है. अच्छी तरह जानते हैं कि अधिक पैसा कमाना है, तो धान-गेहूं के मोह से निकलना होगा. फूल से लेकर राजमा तक की खेती की सलाह दूसरों को देते हैं.
जैसे ही खेतों से गेहूं कट जाता है, तो धान की खेती की तैयारी शुरू हो जाती है. भात खानेवाले समाज के लोगों की बातचीत में यह बात बार-बार आ जाती है कि अपने खेत में उपजे धान के चावल की बात ही और है.
अपने घर-परिवार, गांव-समाज के किसानी अनुभव से यही सीखा है कि खेत अभी भी हमारे लिए धन कमाने का जरिया उतना नहीं है, जितना यह कि हमें खाने के लिए बाजार से अनाज न खरीदना पड़े. बाकी खर्चे तो नौकरी से पूरे हो जाते हैं, लेकिन भात तो अपने खेत के धान का ही होना चाहिए.
एक बात और है कि पंपिंग सेट, बोरिंग के बावजूद आज भी ज्यादातर इलाकोंमें खेती पूरी तरह से बारिश पर ही निर्भर है.
जब बारिश अच्छी होती है, तो पंपिंग सेट चलाने के लिए डीजल नहीं खरीदना पड़ता है और उपज भी पहले से ज्यादा बढ़ जाती है. विस्थापित हुए भले जमाना हो गया है, लेकिन मन का भी विस्थापन संभव है क्या? शायद नहीं. तभी तो जब राजन भइया ने फोन पर बस इतना ही कहा कि खूब बारिश हो रही है, तो आषाढ़ के इस महीने में मेरा मन हरे-भरे धनखेतों में पहुंच गया.