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अस्थिर व अशांत कश्मीर

हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीर में भड़के आक्रोश से घाटी के मौजूदा हालात और आनेवाले दिनों के बारे में ठोस अंदाजा लगाया जा सकता है. सुरक्षा बलों की गोली से हुई 16 मौतों और सैकड़ों घायलों की संख्या से यह पता चलता है कि कश्मीरियों के असंतोष और […]

हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीर में भड़के आक्रोश से घाटी के मौजूदा हालात और आनेवाले दिनों के बारे में ठोस अंदाजा लगाया जा सकता है. सुरक्षा बलों की गोली से हुई 16 मौतों और सैकड़ों घायलों की संख्या से यह पता चलता है कि कश्मीरियों के असंतोष और रोष के समुचित समाधान को लेकर सरकारी स्तर पर खतरनाक लापरवाही का आलम है.

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने बयान दिया है कि भीड़ को नियंत्रित करने में अत्यधिक बल प्रयोग के कारण इतनी मौतें हुई हैं. इस बात से यही संकेत निकलता है कि सुरक्षा बलों और राज्य सरकार के बीच परस्पर तालमेल का अभाव है. एक अशांत राज्य के लिए ऐसी स्थिति बेहद नुकसानदेह है. प्रदर्शनकारियों से ठीक से निबटने में प्रशासनिक असफलता की जिम्मेवारी केंद्र और राज्य सरकार को लेनी होगी. इस बेहद तनावपूर्ण माहौल को सामान्य बनाना तात्कालिक जरूरत है.

घाटी में शांति स्थापित करने और लोगों, खासकर युवाओं, को भरोसे में लेने के लिए सुविचारित दीर्घकालिक प्रयास करने होंगे, जिसकी पहली सीढ़ी यह है कि केंद्र सरकार अपनी खामियों और भूलों को रेखांकित करे. ऐसी पहलों के लिए हाल के वर्षों में कश्मीर के इतिहास का संदर्भ बहुत महत्वपूर्ण है. कश्मीर समस्या कई दशकों के उतार-चढ़ाव के बाद इस मुकाम पर पहुंची है, परंतु घाटी में हिंसा और उग्रवाद की वर्तमान लहर के बीज 2010 के विरोध प्रदर्शनों के दौरान पड़े थे. तब राज्य में उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की साझा सरकार थी.

उन प्रदर्शनों पर सुरक्षा बलों की गोलीबारी में 120 से अधिक नागरिक मारे गये थे. ऐसा दौर शांति के एक उम्मीद भरे चरण के बाद आया था. वर्ष 2002 के चुनाव के बाद बनी मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार ने केंद्र में सत्तारूढ़ वाजपेयी सरकार के सहयोग से घाटी में विश्वास और अमन-चैन स्थापित करने में बड़ी कामयाबी पायी थी. उस चुनाव में घाटी की जनता ने बड़े पैमाने पर भाग लिया था तथा उसकी निष्पक्षता की व्यापक सराहना हुई थी. यह भी उल्लेखनीय है कि राज्य में पहली बार ऐसी सरकार बनी थी जो केंद्र सरकार की विरोधी थी.

अमूमन जम्मू-कश्मीर में उन्हीं दलों या गंठबंधनों की सरकार होती है जो केंद्र में भी सत्तारूढ़ होते हैं. उस समय राजनीतिक विरोधों को परे रख कर पीडीपी-कांग्रेस की राज्य सरकार तथा केंद्र की वाजपेयी सरकार ने कश्मीर में अनेक सकारात्मक पहलें की थीं. उस समय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ का सूत्र दिया था. अलगाववादियों से बातचीत, गुमराह युवाओं को मुख्यधारा में लाने तथा उग्रवादियों को समर्पण करा कर उनके पुनर्वास के कार्यक्रम शांति और विश्वास बहाल करने में सहायक हुए थे. इन पहलों से कश्मीर समस्या के समाधान का एक आधार तैयार होता दिख रहा था, पर 2008 आते-आते वह नींव बिखर गयी और घाटी में फिर से प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया. सरकार ने इन प्रदर्शनों का जवाब बल प्रयोग से दिया जिससे आक्रोश बढ़ता गया.

पिछले साल जब पीडीपी और भाजपा गंठबंधन के नेता के तौर पर मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने, तब यह उम्मीद फिर बंधी थी कि केंद्र की मोदी सरकार के सहयोग से राज्य में भरोसे की बहाली होगी तथा असंतोष पर काबू पाया जा सकेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस दिशा में पूरा प्रयत्न करने का आश्वासन दिया था. कश्मीर के विकास तथा पाकिस्तान से अच्छे संबंध बनने के आसार भी दिख रहे थे. पर यह सारी उम्मीदें नाकाम साबित हुई हैं और कश्मीर घाटी के एक बार फिर 1990 के दशक की अस्थिरता की ओर जाने के आसार दिखायी पड़ रहे हैं. सरकार उग्रवाद और आक्रोश के इस ताजा दौर का दोष पाकिस्तान और अलगाववादी समूहों के सिर मढ़ कर अपनी विफलता और अगंभीर रवैये को नहीं छुपा सकती है. तमाम घोषणाओं के बावजूद कश्मीर के आर्थिक विकास की योजनाएं जमीनी हकीकत नहीं बन सकी हैं.

शिक्षा और रोजगार की दिशा में ठोस पहलें नहीं की गयी हैं. दोनों सरकारों के पास कश्मीर के लोगों में भरोसा पैदा करने के लिए साल भर से अधिक का समय था, जिसे गंवा दिया गया है. पाकिस्तान से बातचीत कर या उस पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बना कर आतंकवाद और अलगाववाद को शह देने की उसकी नीति को रोकने के लिए भी समुचित प्रयास नहीं किये गये. सनद रहे, कश्मीर के भारत के अभिन्न अंग होने के नारे लगाने भर से बात नहीं बनेगी. इसके लिए वहां के लोगों का भरोसा जीतना होगा.

देश के अन्य हिस्सों में कश्मीर और कश्मीर के निवासियों के बारे में उन्माद और भेदभाव को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति भी खतरनाक है. घाटी में बेजा बल प्रयोग की नहीं, बल्कि ऐसे उपायों की आवश्यकता है जिससे युवाओं को बेहतर भविष्य मिल सके और कश्मीरियों के मन में देश और सरकार के प्रति सद्भावना कायम हो सके. ऐसी पहलें सरकारों की प्रमुख जिम्मेवारी हैं.

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