खाना हो तो घर का हो

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार एक विज्ञापन में लड़का अपनी मां से कहता है कि अगर बाहर के खाने में मां का हाथ लग जाये, तो मां के हाथ का खाना हो गया न. आज की पीढ़ी के लिए घर के खाने की यही परिभाषा है.अकसर बच्चे और युवा कहते हैं कि आज तो कुछ अच्छा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 13, 2016 6:08 AM

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

एक विज्ञापन में लड़का अपनी मां से कहता है कि अगर बाहर के खाने में मां का हाथ लग जाये, तो मां के हाथ का खाना हो गया न. आज की पीढ़ी के लिए घर के खाने की यही परिभाषा है.अकसर बच्चे और युवा कहते हैं कि आज तो कुछ अच्छा खाना है. इस अच्छे खाने से उनका मतलब होता है, बाहर का खाना. न जाने कब ऐसा हो गया कि घर का खाना अच्छा न मान कर बाजार का खाना अच्छे में शुमार हो गया. जबकि किसी तकलीफ के लिए डाॅक्टर के पास जाओ, तो आज भी उसका पहला सवाल यही होता है कि बाहर का क्या खाया था.

एक समय तक घर के खाने का मतलब होता था घर में सदस्यों की रुचियों के अनुसार साफ-सफाई से बनाया गया खाना. घर की औरतों को खाना बनाने और खाने में तरह-तरह के प्रयोग करने में आनंद आता था. चूंकि अरसे से रसोई ही औरतों की प्रयोगशाला रही है, इसीलिए खाना बनाने में तरह-तरह के करतब और इन्नोवेशन दिखाई देते हैं. अरहर की दाल या कढ़ी या आम का अचार तो वही होता है, मगर हर स्त्री के हाथ के बने खाने का स्वाद अलग और अनोखा होता है.

यही नहीं, खाने में एक इमोशनल बांडिंग भी छिपी रहती है. घर के किस सदस्य को क्या सबसे ज्यादा पसंद है, कितना नमक, कितनी चीनी, कौन सी मिठाई, ज्वार, बाजरा, मक्का, जई, गेहूं की रोटी. मखाने, चावल, साबूदाने या गन्ने के रस की खीर. अगर ध्यान से देखें, तो पश्चिम में परिवार टूटने का बड़ा कारण वहां घरों में खाने का न बनना है. वहां हर तरह का खाना बाजार में उपलब्ध है. बाजार में बना खाना उद्योग का हिस्सा है.

इसीलिए न तो उसमें कोई भावनात्मक संबंध है, न कोई रागात्मकता है और न ही उसका स्वाद हमारे अनुकूल होता है. वह तो एक उत्पाद है, जो बाजार की मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर चलता है. पश्चिमी देशों में खाने की चीजें बनानेवाली कंपनियों का अरबों-खरबों का व्यवसाय है. भारत में भी कंपनियों की नजर रसोई पर है कि कब घर में खाना पकना बंद हो, तो यह व्यवसाय फले-फूले.

घर के खाने के मुकाबले बाहर के खाने के बारे में कहा जाता है कि उसमें घी-तेल, चिकनाई, नमक और चीनी का बहुत अधिक प्रयोग किया जाता है, जिसकी जरूरत शरीर को नहीं होती. कैलोरी बहुत अधिक होती है. जिनके कारण मोटापा बढ़ता है और तरह-तरह के रोग होते हैं. हाल ही में केरल में ऐसी बहुत सी खाने की चीजों पर फैट टैक्स लगाया गया है.

पश्चिम में भी कई देशों में यह टैक्स है और खाने की हर चीज पर कैलोरी लिखना अनिवार्य है. कुछ दिन पहले एक रिसर्च में कहा गया था कि मधुमेह के मरीजों के लिए शाकाहारी खाना बेहतर होता है, क्योंकि इसमें कम कैलोरी होती है.हाल ही में अमेरिका में हुए एक और शोध में बताया गया था कि स्वास्थ्य के लिहाज से घर का खाना सबसे बेहतर होता है.

लेकिन सवाल तो यह है कि वहां घर में खाना पकायेगा कौन. बल्कि वहां क्या अब अपने देश में भी लोग खाना पकाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. खाना पकाना, यानी कि छोटा काम. और छोटा काम कोई करना नहीं चाहता. यह नये किस्म का जातिवाद है. फिर स्त्री विमर्श ने औरतों को यह भी बताया है कि आखिर वे ही खाना क्यों पकायें? जब घर दोनों का है, तो घर चलाने की जिम्मेवारी भी दोनों की ही होनी चाहिए.

इसलिए मध्यवर्ग की लड़कियां, जो अब बड़ी संख्या में शिक्षित हैं, नौकरी करने बाहर जाती हैं, वे अब खाना खुद पकाने की जगह सबसे पहले कुक तलाशती हैं. हालांकि, दूसरे नजरिये से देखें, तो लड़कियों के इस तरह से नौकरीपेशा होने के कारण खाना बनानेवालियों के रूप में औरतों के लिए नये रोजगार भी सृजित हुए हैं.

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