दवा कंपनियों के उपभोक्ता कौन?

ऐसा लगता है कि दवा कंपनियां आम नागरिकों को अपना उपभोक्ता ही नहीं समझती हैं. उनके लिए तो उपभोक्ता मेडिकल प्रोफेशन से जुड़े हुए कुछ लोग ही हैं. जिनमें एमआर, डॉक्टर, पारा मेडिकल कर्मी, अस्पताल, उनके डायरेक्टर आदि आते हैं. रोगों के निदान हेतु डॉक्टर या मेडिकल क्षेत्र से जुड़े लोगों की सलाह पर ही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 24, 2014 4:18 AM

ऐसा लगता है कि दवा कंपनियां आम नागरिकों को अपना उपभोक्ता ही नहीं समझती हैं. उनके लिए तो उपभोक्ता मेडिकल प्रोफेशन से जुड़े हुए कुछ लोग ही हैं. जिनमें एमआर, डॉक्टर, पारा मेडिकल कर्मी, अस्पताल, उनके डायरेक्टर आदि आते हैं. रोगों के निदान हेतु डॉक्टर या मेडिकल क्षेत्र से जुड़े लोगों की सलाह पर ही दवाइयां आम उपभोक्ता बाजार से खरीदते हैं.

इस कारण दवा कंपनियां अपने प्रचार-प्रसार के लिए लाखों-करोड़ों रुपये मेडिकल कॉन्फ्रेंसों पर खर्च कर देती हैं. मेडिकल क्षेत्र से जुड़े लोगों को इन दवा कंपनियों द्वारा पेन, डायरी, वजन मशीन, ब्लड प्रेशर मशीन, कैलेंडर, थर्मामीटर आदि गिफ्ट देना तक तो समझ में आता है, लेकिन जब इन लोगों को देश-विदेश परिवार के साथ तफरीह करने भेजा जाता है और इसका संपूर्ण खर्च दवा कंपनियां वहन करती हैं तो ऐसा लगता है कि आम नागरिकों का खून चूस कर यह सैर-सपाटा कराया जा रहा है.

भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआइ) जो मेडिकल की सबसे वैधानिक संस्थान है, यह कह कर कि हमने तो आचार संहिता बना दी है, अपने दायित्वों से छुटकारा पा लेती है. इस प्रकार देखा जाये तो एमसीआइ गरीब जनता के प्रति गंभीर नहीं है. आम जनता की भलाई के लिए दवाई के बढ़ते मूल्यों पर नियंत्रण करने की जिम्मेवारी आखिर किसकी है? दवा कंपनियों को मेडिकल क्षेत्र से जुडें लोगों से ज्यादा आम नागरिकों की परेशानी समझनी होगी. भारत सरकार के औषधि विभाग को इस क्षेत्र में बदलाव लाने हेतु कड़े कदम उठाने होंगे. मेडिकल कॉन्फ्रेंसों पर हुए खर्च का ऑडिट कराना होगा, आचार संहिता को कानूनी अमलीजामा पहनाना ही होगा. आखिर कब तक आम नागरिकों के पैसे से दवा कंपनियां मौज करती व कराती रहेंगी.

संजय चंद, न्यू एरिया, हजारीबाग

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