हिंसा जिनका पाक काम है!
नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार दुनिया के पैमाने पर पिछले तीस-चालीस दिन बहुत खुशनुमा नहीं रहे हैं. कई जगहों पर और कई घरों में तो ईद की खुशियों पर भी ग्रहण लग गये. इन गुजरे दिनों में हर रात एक डरावने ख्वाब की मानिंद बीती. हर सुबह की किरण बुरे खबर के डर के साथ निकली. ऐसा […]
नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
दुनिया के पैमाने पर पिछले तीस-चालीस दिन बहुत खुशनुमा नहीं रहे हैं. कई जगहों पर और कई घरों में तो ईद की खुशियों पर भी ग्रहण लग गये. इन गुजरे दिनों में हर रात एक डरावने ख्वाब की मानिंद बीती. हर सुबह की किरण बुरे खबर के डर के साथ निकली. ऐसा नहीं है कि डर का साया कोई पहली बार छाया हो. ऐसा भी नहीं है डर खत्म हो गया हो. पहले भी खौफनाक दिन आये हैं, लेकिन इन चंद हफ्तों ने डर को अंदर तक पैबस्त कर दिया.
अफगानिस्तान, अमेरिका, फ्रांस, फिलीपींस, केन्या, जॉर्डन, लेबनान, मलेशिया, तुर्की, यमन, इराक, बांग्लादेश, सऊदी अरब, इंडोनेशिया, यहां इन मुल्कों के नाम गिनाने की खास वजह है. पिछले महीने ये सभी मुल्क खबरों की सुर्खियों में रहे थे. इन सबमें एक बात आम थी. सब पर खौफ का साया था. इन सब पर हमले हुए. इन हमलों में एक ही संगठन का नाम बार-बार आया- ‘इसलामिक स्टेट’ यानी आइएस. और तो और, कई हमलों की जिम्मेवारी तो खुद आइएस ने ही ली है.
जिस महीने में यह सब हुआ है, उसे इसलामी कैलेंडर में रमजान का महीना कहते हैं. रमजान, इसलाम का सबसे पाक महीना है. इसी महीने में पाक कुरान नाजिल हुआ था. कुरान इसलाम की बुनियाद है.
मुसलमान इसी से मजहबी जिंदगी जीने की राह तलाशते हैं. यह महीना हर तरह की बुराई से दूर रहने की हिदायत देता है. सच पर चलने की सीख देता है. इबादत का खास महीना है. गरीबों और मजलूमों से हिमायत की सीख देनेवाला महीना है. इस महीने में मुसलमान कुछ भी ऐसा करने की कोशिश नहीं करते, जिससे किसी को तकलीफ हो. फिर रमजान के महीने में यह खौफ का साया क्यों छा गया?
क्योंकि, आइएस के लिए यह महीना कुछ और ही खास काम का था. उसके निशाने पर अमेरिकी, यूरोपीयाई, अरब, एशियाई, ईसाई, मुसलमान, हिंदू, शिया-सुन्नी, मर्द-औरत, समलैंगिक, बच्चे-बूढ़े सब थे.
जहां दुनियाभर के मुसलमान रमजान में इबादत में दिन और दिल लगा रहे थे, वहीं दूसरी ओर, आइएस के हिमायती खौफ बरपा रहे थे. इसे ही वे रमजान का पाक काम मान रहे थे. वे रमजान में ‘विधर्मियों’ को मार कर मर जाने को ही जन्नत तक पहुंचने का जरिया मान रहे थे.
जब भी ऐसे हमले होते हैं, तुरंत ही मजहब के तौर पर इसलाम और आम मुसलमान की नुक्ताचीनी शुरू हो जाती है. कुछ लोगों के किये का जवाब सभी से मांगा जाता है. लेकिन, अब अगर लोग यह सवाल करेंगे कि सबसे पाक महीने में मजहब के नाम पर यह खूंरेजी क्यों हो रही है, तो क्या यह गलत है? क्या यह पूछना गलत होगा कि जिस मजहब के नाम से सलामती की झलक मिलती है, उसके नाम पर सबसे पाक महीने में हिंसा क्यों की जा रही है?
या क्या इन धमाकों को देख कर यह सवाल करना गलत होगा कि इसलाम के माननेवाले, दूसरे मजहब या विचार वालों के साथ नहीं रह सकते हैं?
यह सही है कि वे भी मुसलमान हैं और अपनी हिंसक हरकतों के लिए इसलाम का सहारा लेते हैं. लेकिन, वे ही मुसलमान नहीं हैं और इसलाम की सिर्फ यही अकेली व्याख्या नहीं है, जो वे करते और कहते हैं. इसलाम के नाम पर की गयी महज यह एक व्याख्या है.
यह व्याख्या, मजबूत राजनीतिक विचार के रूप में धीरे-धीरे फैल रही है. अपने राजनीतिक विचार को जताने के लिए यह हिंसा का सहारा ले रही है. इस विचार की जड़ में इसलाम की रूहानी ताकत तो कतई नहीं है.
यह विचार हकीकत में इसलाम का इस्तेमाल खास तरह की राजनीतिक वैचारिक सत्ता बनाने के लिए कर रही है. इसीलिए इसे इसलामी कहने से कतई काम नहीं चलेगा, बल्कि इससे भ्रम और शक का दायरा और बढ़ेगा ही.
यह विचार, कैसी राजनीतिक सत्ता बनाना चाहती है, वह सीरिया और इराक से आ रही खबरों से जाहिर है. फिलहाल इतना समझना जरूरी है कि यह अलग-अलग विचारों के सह-अस्तित्व में यकीन नहीं रखती है. वह कई विचारों के साथ-साथ रहने की हामी ही नहीं है.
हां, मजबूरी में साथ-साथ रहना और बात है. इस विचार के असर इराक, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश में आम दिनों में देखे जा सकते हैं. मसलन, पड़ोसी पाकिस्तान में यह विचार सूफियों, शियाओं, हिंदुओं, अहमदियों, ईसाइयों के खिलाफ है. इन समूहों/समुदायों के खिलाफ, आये दिन होनेवाली हिंसा में इस राजनीतिक विचार की शक्ल देखी जा सकती है. लेकिन, सभी पाकिस्तानी मुसलमान इस विचार के हिमायती हैं, ऐसा भी नहीं है. यही हाल बाकी जगहों का भी है. जहां भी ये हैं, वहां मुसलमानों के ही कई विचार इनसे टकरा रहे हैं. दुनिया में भी इस विचार के मुकाबले में खड़े होनेवाले सबसे ज्यादा मुसलमान ही हैं.
यह खास तरह का मजहबी राजनीतिक विचार है, इसलिए जरूरी नहीं है कि यह एक ही संगठन के रूप में समाज में नुमाया हो. मुमकिन है कि इराक-सीरिया में यह एक नाम से हो, तो पाकिस्तान-अफगानिस्तान में किसी दूसरे नाम और शक्ल से दिखाई दे रहा हो.
इसलिए आज इसलाम के नाम पर खड़े होनेवाले इस राजनीतिक विचार को समझना निहायत जरूरी है.इसे इसलाम के कई अन्य विचारों से अलग समझना और उनसे फर्क करना भी जरूरी है. ऐसा नहीं है कि इस फर्क को सिर्फ उन्हें ही समझना है, जो मुसलमान नहीं हैं. यह आम मुसलमानों के लिए भी समझना बहुत जरूरी है. यह जानना बहुत ही जरूरी है कि वे कौन लोग हैं, जो मजहब, पंथ, विचार के फर्क को बुनियादी फर्क मानते हैं और कुदरती, समाजी, सियासी या अन्य तरह के कई फर्क के साथ खुशी-खुशी जीने को तैयार नहीं हैं.
21वीं सदी में इंसानी हकूक के उसूल तय हैं. इंसानी उसूल के पैमाने पर किसी इंसान या समुदाय को सिर्फ इसलिए खत्म कर देना या दबा कर रखना (क्योंकि वह किसी के विचार का हिमायती नहीं है) गैरइंसानी सुलूक है.ऐसी उम्मीद की जाती है कि हर सभ्य समाज में ऐसा सुलूक नाकाबिले-बर्दाश्त होगा. इसलिए इसलाम के माननेवाले जो लोग सभ्य समाज के पैरोकार हैं, उनके लिए यह हिंसक राजनीतिक विचार बड़ी चुनौती है.