किसानी में जीवन आनंद
गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान किसानी करते हुए तीन साल पूरे हो गये हैं. आप कह सकते हैं कि बंदा किसानी समाज में ग्रेजुएट हो गया, लेकिन बिना लिखित परीक्षा दिये और वह भी बिना कॉलेज गये. दरअसल, खेती-किसानी को लेकर अभी भी अपना समाज रोने के मूड में है. जब भी किसी को […]
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
किसानी करते हुए तीन साल पूरे हो गये हैं. आप कह सकते हैं कि बंदा किसानी समाज में ग्रेजुएट हो गया, लेकिन बिना लिखित परीक्षा दिये और वह भी बिना कॉलेज गये. दरअसल, खेती-किसानी को लेकर अभी भी अपना समाज रोने के मूड में है. जब भी किसी को कहता हूं कि किसान हूं, तो लगता है जैसे बेकार हूं, बेरोजगार हूं या फिर पुश्तैनी जमीन-जायदाद का लुत्फ उठा रहा हूं. ऐसे में किसानी की व्याख्या करना कभी-कभी चिढ़ भी पैदा करता है.
इन सबके के बावजूद मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसानी का अध्याय आरंभ करते हुए ही हमने खुली हवा में सांस लेना सीखा. महानगर में नौकरी करते हुए भी हमने जीवन को जिया और अब गाम-घर करते हुए भी जी रहा हूं. फसलों के संग दोस्ती बढ़ी, तो लगा कि जीवन तो कहानी है. हमने खेती करते हुए खेत-पथार से बातचीत शुरू कर दी. गांव के कबिराहा मठ से दिलचस्पी बढ़ गयी. कबीर की वाणी- ‘कबीरा मन निर्मल भया’ का अर्थ समझने लगा. किसानी पेशे में हम रोज लड़ते हैं, इस लड़ाई में माटी की खुशबू आती है.
वैसे एक बात है, किसानी करते हुए हम जीवन के गणित को करीब से समझने लगते हैं, क्योंकि इस पेशे में हम प्रकृति के सबसे करीब होते हैं. प्रकृति के भरोसे पर ही हमारी गाड़ी चलती है. धरती मैय्या के साथ हम लिपटे रहते हैं. मां पर हमें भरोसा होता है, लेकिन प्रकृति के हाथ में सब कुछ है. किसानी समाज मौसम की मार सहते हुए आगे बढ़ता है. साल भर हम मेहनत करते हैं, लेकिन हमें यह पता नहीं होता है कि फसल कैसी होगी. हम बीज बोते हैं और सब कुछ प्रकृति के हाथ में छोड़ देते हैं. सच पूछिये तो इन तीन सालों में बड़ा विश्वासी हो गया हूं.
फसल के संग ही हमने प्रकृति के संग रिश्ता बनाया साथ ही ग्राम्य लोक संस्कृति और गीतों में भी हमारी दिलचस्पी बढ़ी. किसानी कितना कुछ नया सिखा रहा है. धनरोपनी से लेकर कटनी तक की बातें याद आने लगती हैं. हर समय का अपना गीत है. गांव का जीवन असल में हमें आनंद का भी पाठ पढ़ाता है.
खुश रहने की तरकीब ग्राम्य जीवन हमें हर पल सिखाता है और किसानी करते हुए हर कोई आसानी से इसे सीख सकता है, क्योंकि इसके बिना गांव का जीवन अधूरा है. बीते तीन सालों में माटी से इश्क करना सीखा. खेत मुझे किसी पेंटर की पेंटिंग लगने लगा है. गेहूं का खेत हो या फिर धान का, सबका रंग मुझे अपनी ओर खींचने लगा है. साल के बारह महीने कुछ न कुछ नया हम करते रहते हैं. मानो बारहमासा गाना सीख रहे हों. एक बात और, किसानी करते हुए हमें बाढ़-सूखा-आंधी या बेमौसम बरसात का भी सामना करना पड़ता है. हम जीवट हो जाते हैं, खुद से लड़ना सीख लेते हैं और सबसे बड़ी बात कि संतोष की सीमा रेखा खींचना सीख लेते हैं. नहीं तो इस लेख की शुरुआत ही मैं दर्द से करता, लेकिन किसानी करते हुए यह दर्द हम धरती मैय्या को सौंप देते हैं. यही है किसानी.
फिलहाल खेत में मक्का के बाद धान की फसल है. हरे रंग में खेत रंग चुका है. दोपहर में पहाड़ी मैना का झुंड खेत के आसपास मंडराता है, वहीं खेत के बीच में पीले रंग की एक चिड़िया चहक रही है.
अब तो लगता है कि मैं सचमुच में जीवन जीने लगा हूं, गीत-कविता-कहानी समझने लगा हूं. आप सबके लिए अन्न उपजाते हुए समझने लगा हूं कि सब कुछ उतना भी आसान नहीं हैं, जितना बड़े शहरों के वातानुकूलित कमरे में बैठ कर महसूस करता था. अहा! ग्राम्य जीवन जैसे वाक्यों को समझने के लिए गांव को जीना जरूरी है, अब यह समझने लगा हूं.
फिलहाल इतना ही, फिर बात होगी नये फसल की…