मरीजों की मजबूरी
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट की मानें, तो भारत में कार्यरत 57 फीसदी एलोपैथिक डॉक्टर झोलाछाप हैं यानी उनके पास मेडिकल डिग्री नहीं है. रिपोर्ट बताती है कि खुद को एलोपैथिक डॉक्टर कहनेवाले 31 फीसदी व्यक्ति तो ज्यादा-से-ज्यादा 12वीं पास हैं. अब कोई रिपोर्ट के तथ्य पर अंगुली उठा सकता है कि उसमें 2001 […]
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट की मानें, तो भारत में कार्यरत 57 फीसदी एलोपैथिक डॉक्टर झोलाछाप हैं यानी उनके पास मेडिकल डिग्री नहीं है. रिपोर्ट बताती है कि खुद को एलोपैथिक डॉक्टर कहनेवाले 31 फीसदी व्यक्ति तो ज्यादा-से-ज्यादा 12वीं पास हैं. अब कोई रिपोर्ट के तथ्य पर अंगुली उठा सकता है कि उसमें 2001 की जनगणना पर आधारित आंकड़ों का ही उपयोग किया गया है.
लेकिन, हालिया आंकड़ों को भी सामने रखें, तो स्थिति में खास फर्क नहीं पड़ता. मसलन, भारत सरकार ने नेशनल हेल्थ प्रोफाइल (2015) नाम से जो रिपार्ट जारी की है, उसके तथ्य बताते हैं कि पंजीकृत चिकित्सकों की संख्या हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी है. 2007 से 2014 के बीच करीब 2 लाख एलोपैथिक डॉक्टरों ने राज्यों के और इंडियन मेडिकल काउंसिल में अपना पंजीकरण करवाया है. लेकिन, तादाद में तेज बढ़त के बावजूद देश में 2014 में पंजीकृत चिकित्सकों की संख्या 9.4 लाख ही थी.
यानी 11,528 लोगों पर उपचार के लिए सिर्फ एक पंजीकृत एलोपैथिक चिकित्सक उपलब्ध है. कुछ राज्यों, जैसे छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार, में यह अनुपात इससे भी कम है. चिकित्सा के मामले में बुनियादी ढांचे की खस्ताहाली का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि औसतन 1833 मरीजों के लिए सरकारी अस्पतालों में महज एक बेड मौजूद है और हर रेफरल सरकारी अस्पताल पर औसतन 61 हजार लोगों की चिकित्सा का भार है.
यह स्थिति इसलिए है, क्योंकि सरकार देश की जीडीपी का केवल 1.2 फीसदी चिकित्सा पर खर्च करती है, जो बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों से भी कम है. एक तरफ सरकारी क्षेत्र में चिकित्सक, नर्स, अस्पताल की कमी और दूसरी तरफ निजी क्षेत्र में मौजूद महंगे उपचार के दो पाटों के बीच पिसनेवाले साधारण भारतीय के लिए विकल्प यही बचता है कि वह अपनी बीमारी के उपचार के लिए परंपरागत वैद्य-हकीमों और होम्योपैथ की शरण ले या खुद को झोलाछाप डाॅक्टरों के हवाले कर दे.
चिकित्सा का बाजार बाकी बाजारों से अलग नहीं है, यहां भी मांग ज्यादा होने की सूरत में या तो ऊंची कीमत पर सेवा मिलती है या घटिया सेवा से काम चलाना पड़ता है. स्थिति का निदान तभी संभव है, जब सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर खर्च बढ़ाये. बढ़े खर्च का उपयोग योग्य मानव-संसाधन तैयार करने में भी किया जा सकता है और बुनियादी चिकित्सीय ढांचे के विस्तार में भी.