एक मीलस्तंभ फैसला

सर्वोच्च न्यायालय का अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार तथा 15 दिसंबर, 2015 की स्थिति फिर से बहाल करने का फैसला भारतीय लोकतंत्र के विकास में इस वजह से एक मीलस्तंभ है कि यह राज्यपालों की भूमिका तथा उनके कार्यों के साथ ही दलबदल विरोधी कानून एवं संविधान की धारा 356 के उपयोग या दुरुपयोग के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 20, 2016 2:05 AM

सर्वोच्च न्यायालय का अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार तथा 15 दिसंबर, 2015 की स्थिति फिर से बहाल करने का फैसला भारतीय लोकतंत्र के विकास में इस वजह से एक मीलस्तंभ है कि यह राज्यपालों की भूमिका तथा उनके कार्यों के साथ ही दलबदल विरोधी कानून एवं संविधान की धारा 356 के उपयोग या दुरुपयोग के संबंध में एक सुनिश्चित मार्गदर्शिका प्रस्तुत करता है.

एक राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राजनीतिक वफादारी से पूरी तरह परे एक संवैधानिक प्राधिकार होगा. मगर वास्तविकता यह है कि राज्यपाल केंद्र में सत्तासीन दल द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और अपने सिद्धांतों तथा पूर्व राजनीतिक गतिविधियों में अधिकतर वे उस दल के निकटस्थ होते ही हैं. पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने निर्णय में इस असंवैधानिक व्यवहार पर यह स्पष्ट कर दिया कि राज्यपाल एक निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं, केवल कार्यपालिका द्वारा मनोनीत होते हैं, जिनका कार्यकाल राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर निर्भर है, और यह कि एक दल की अंदरूनी गतिविधियां राज्यपाल के सरोकार से परे होनी चाहिए.

इसके भी आगे जाकर विद्वान न्यायाधीशों ने राज्य विधानसभा की कार्यवाहियों में राज्यपाल के हस्तक्षेप पर यह व्यवस्था दी कि ‘सदन के अंदर क्या हो रहा है, इससे राज्यपाल को कोई वास्ता नहीं होना चाहिए.’ सुप्रीम कोर्ट की इन सख्त टिप्पणियों की तात्कालिक वजह अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ज्योति राजखोवा का भाजपा के प्रति खुला पक्षपाती रवैया था. प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस दल के विधायकों के दलबदल में परदे के पीछे से संचालित उनकी भूमिका के अलावा राजखोवा ने चार मुख्य पाप किये. पहला, उन्होंने काबीना की सलाह के विरुद्ध 16 दिसंबर, 2015 को राज्य विधानसभा की बैठक आहूत कर दी. दूसरा, उन्होंने दलबदलू कांग्रेस विधायकों को अयोग्य ठहराने का अध्यक्ष का फैसला निरस्त कर दिया. तीसरा, उन्होंने विधानसभा की बैठक एक होटल में आयोजित किये जाने को अपना प्रच्छन्न प्रोत्साहन प्रदान करते हुए उस उपाध्यक्ष द्वारा उसकी अध्यक्षता की अनुमति दी, जिसे अध्यक्ष ने दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य करार दिया था. चौथा, उन्होंने इस पर जोर देते हुए कि अध्यक्ष के हटाये जाने को कार्यवाही का पहला मुद्दा होना चाहिए, इस हास्यास्पद जमावड़े पर एक एजेंडा भी थोप दिया.

यदि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे व्यवहार की रोकथाम न की होती, तो इसका अर्थ राजनीतिक सक्रियता की उस अनैतिक पटकथा को वैधानिकता देना होता, जिसका अरुणाचल तथा उत्तराखंड में आविर्भाव हुआ. यह कुछ ऐसे होता है कि सबसे पहले निर्वाचित सत्तारूढ़ दल से मुट्ठीभर विधायक फोड़े जाते हैं. उसके बाद दलबदल विरोधी कानून के अंतर्गत जब विधानसभा अध्यक्ष उन विधायकों को अयोग्य करार देते हैं, तो अध्यक्ष को ही हटाने के लिए प्रस्ताव पेश किया जाता है. अंत में राज्यपाल ऐसी रिपोर्ट करते हुए कि संवैधानिक व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है, धारा 356 के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं. और फिर केंद्र सरकार इस अनुशंसा पर तत्परता से कार्रवाई करते हुए लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी एक राज्य सरकार को पिछले दरवाजे से हटा देती है.

बड़ा प्रश्न यह है कि भाजपा को वह करने की क्या जरूरत थी, जिसे उसने अरुणाचल तथा उत्तराखंड में अंजाम दिया? इसे केंद्र में पूर्ण बहुमत हासिल है और इसलिए सिवाय सत्ता के दंभ तथा शेखी के इस वक्त ऐसी गतिविधि में भागीदारी की कोई फौरी वजह नहीं दिखती.

1985 में दलबदल विरोधी कानून पारित होने के पश्चात भारतीय राजनीति में ‘आया राम और गया राम’ के युग का लगभग पटाक्षेप हो गया. 2003 में इस कानून को और भी सुदृढ़ किया गया. धारा 356 के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग का काल भी लगभग समाप्त हो गया है. 1993 में एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया कि एक दल के बहुमत की जांच करने की एकमात्र जगह सदन का फर्श है. यह भी साफ है कि धारा 356 को लागू करने के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट न्यायिक समीक्षा के अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर सकता है और उसने पूर्व में ऐसे मनमाने फैसले पलटे भी हैं. तो फिर भाजपा ने यह जुआ क्यों खेला?

यह आलेख समाप्त करते-करते यह समाचार आ चुका है कि अरुणाचल के नये मुखिया पेमा खांडू ने राज्यपाल के समक्ष अपने बहुमत का साक्ष्य प्रस्तुत कर दिया है, जो भाजपा के लिए एक और झटका है. तात्कालिक प्राथमिकता यह है कि राजखोवा हर हाल में पदत्याग करें तथा भविष्य में ऐसे सभी राज्यपालों को, जो सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देश का उल्लंघन करते हैं, ऐसा ही करने को बाध्य किया जाना चाहिए.

(अनुवाद : विजय नंदन)

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

pavankvarma1953@gmail.com

Next Article

Exit mobile version