अमेरिकी चुनाव और भारत
आजकल भारत में इस बात को लेकर तेज सिरदर्द पाला जा रहा है कि अमेरिका में अगर डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुन लिये गये, तो उसका हम पर क्या असर पड़ेगा? अगर जो सारी बहकी बातें ट्रंप अपने चुनाव अभियान के दौरान करते रहे हैं और उन्हीं को अपनी आर्थिक-सामरिक नीतियों का आधार बनाते हैं, तो […]
आजकल भारत में इस बात को लेकर तेज सिरदर्द पाला जा रहा है कि अमेरिका में अगर डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुन लिये गये, तो उसका हम पर क्या असर पड़ेगा? अगर जो सारी बहकी बातें ट्रंप अपने चुनाव अभियान के दौरान करते रहे हैं और उन्हीं को अपनी आर्थिक-सामरिक नीतियों का आधार बनाते हैं, तो निश्चय ही भारत में बीपीओ और मुक्तहस्त पूंजी निवेश में रुकावट आयेगी. मगर इससे कहीं ज्यादा खतरनाक चुनौती होगी कट्टरपंथी इसलामी दहशतगर्दी की.
ट्रंप ने अगर मुसलमानों को निशाना बनाया, तो निश्चय ही कुछ समय के लिए यह हिंसक लावा हमारी तरफ बह कर आ सकता है. एक अन्य संकट भी है. ट्रंप की उम्मीदवारी ने अमेरिका को बुरी तरह बांट दिया है. गोरों और अश्वेतों के बीच नस्लवादी सांप्रदायिकता सरीखा वैमनस्य कभी भी हिंसा के सर्वनाशी विस्फोट में बदल सकता है.
मगर, इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि हिलेरी क्लिंटन हमारे लिए बेहतर होंगी. यह बात गांठ बांधने की दरकार है कि अमेरिका के युवा मतदाता की नजर में यह बुढ़ापे की दहलीज पार कर चमकी पेशेवर नेता खुदगर्ज और शातिर खिलाड़ी है. भरोसे लायक कतई नहीं. बहुत विश्लेषक एक राय हैं कि जीत के बाद यह करिश्माई गिरगिट कभी भी रंग बदल सकती है. ट्रंप की तुलना में हिलेरी मानसिक रूप से असंतुलित या अहंकारी मतिमंद न लगती हों, यह सोचने का कोई कारण नहीं कि उनकी हमदर्दी भारत या दूसरे विकासशील एशियाई और अफ्रीकी देशों के साथ है.
म्यूनिख पर हुए हमले ने एक बार फिर रेखांकित कर दिया है कि निकट भविष्य में जिहादी अमेरिका और पश्चिम एशिया में उसकी सैनिक मोर्चाबंदी में शामिल संधि-मित्रों पर हिंसक हमलों का दबाव बनाये रखेंगे. फ्रांस लहुलूहान हो चुका है, बेल्जियम घायल होने के बाद सहमा ही है और कनाडा भी निरापद नहीं समझा जा सकता. ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति पश्चिमी गोलार्ध की सामरिक सुरक्षा को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देगा. ढाका हो या कश्मीर, इनकी अनदेखी होती ही रहेगी.
यह बात तोता रटंत की तरह प्रचारित किया जाता है कि भले ही अमेरिका का राष्ट्रपति दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी कहलाता हो, वास्तव में सर्वशक्तिमान नहीं है. जिसे पूर्व राष्ट्रपति आइजनहावर ने ‘सैनिक उद्योग तंत्र’ का नाम दिया था, वही अमेरिका को चलाता है. इसी सत्ता प्रतिष्ठान के स्वार्थों को अमेरिकी महाशक्ति के राष्ट्रहित के रूप में परिभाषित किया जाता है! हमें यह याद रखना होगा कि अमेरिकी राजनीतिक प्रणाली में जिस सत्ता के विभाजन की चर्चा की जाती है, उसकी असलियत क्या है? सीनेट हो या सुप्रीम कोर्ट, ये सैद्धांतिक रूप से राष्ट्रपति पर अंकुश लगा सकते हैं, पर ऐतिहासिक अनुभव यही बताता है कि किसी भी निर्णायक घड़ी में राष्ट्रपति बेलगाम तानाशाह की तरह आचरण कर सकता है. इराक, सीरिया, लीबिया की बरबादी या फिर अफगान का सर्वनाशी गृहयुद्ध, इन सबके लिए अमेरिका की गैरकानूनी दखलंदाजी ही जिम्मेवार है. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति के फैसले ही जिम्मेवार हैं.
भारत और अमेरिका के बुनियादी हितों में गंभीर टकराव है. यह सोचना नादानी है कि पाकिस्तान या चीन के साथ किसी विवाद में ट्रंप हों या हिलेरी कोई भी बेहिचक हमारा साथ देगा. शीत युद्ध के युग से आज तक अमेरिका की बैसाखी पर पाकिस्तान टिका रहा है. वहां जनतंत्र की हत्या करने में अमेरिकी प्रशासन ने हाथ बंटाया है. निक्सन और किसिंजर की चीन यात्रा के बाद से अमेरिका के रिश्ते चीन के साथ सुधरते रहे हैं. जापान, उत्तरी कोरिया व साउथ चाइना सी को लेकर क्षणिक मनमुटाव दिखता रहा है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि अमेरिका चीन के मुकाबले भारत को एशिया में ज्यादा वजनदार या अपने लिए सामरिक महत्व का मानने लगा है.
इस घड़ी यूरोपीय समुदाय टूट की कगार पर है. ब्रेक्जिट के बाद अमेरिका का ध्यान विश्व के अन्य संकट-स्थलों से हट कर अटलांटिक बिरादरी पर ही केंद्रित रहनेवाला है. रूस के बारे में सोचने की फुरसत आज भारत में कम लोगों को है. पिछले साल लग रहा था कि पुतिन यूक्रेनी दलदल में फंस गये हैं. आज अमेरिका फिर से पुतिन के रूस के इरादों को लेकर आशंकित है. अतीत में रूस (सोवियत संघ) के भारत के साथ मजबूत रिश्ते थे. आज हमारे नीति निर्धारक रूस की तुलना में अमेरिका को अधिक मूल्यवान सामरिक साझीदार मानते हैं. क्यों कोई यह नहीं पूछता कि पुतिन के अगले पांच साल तख्तनशीं रहने का भारत पर क्या असर होगा?
हमारी राय में कोई भी महाशक्ति या बड़ी ताकत भारत का अवमूल्यन कर उसे नजरअंदाज नहीं कर सकती, यदि हम खुद अपनी एकता और अखंडता की रक्षा में सक्षम हैं. चिंता का विषय अमेरिकी चुनावों का असमंजस नहीं, बल्कि भारत की आंतरिक राजनीति की अस्थिरता है!
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com