सामाजिक दर्पण है खेल का मैदान
अगले महीने ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में हो रहे ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक खेलों में भारत के 116 खिलाड़ियों की टीम हिस्सा लेने जा रही है. ओलिंपिक के इतिहास में यह हमारी अब तक की सबसे बड़ी टीम है. साल 2012 के लंदन ओलिंपिक में 84 खिलाड़ियों की टीम सबसे बड़ी टीम थी. ओलिंपिक में शामिल […]
अगले महीने ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में हो रहे ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक खेलों में भारत के 116 खिलाड़ियों की टीम हिस्सा लेने जा रही है. ओलिंपिक के इतिहास में यह हमारी अब तक की सबसे बड़ी टीम है. साल 2012 के लंदन ओलिंपिक में 84 खिलाड़ियों की टीम सबसे बड़ी टीम थी. ओलिंपिक में शामिल होना बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, क्योंकि लगभग सभी स्पर्धाओं का योग्यता-स्तर बहुत ऊंचा होता है. उसे छूना ही बड़ी उपलब्धि है.
खेलों को सामाजिक विकास के आईने से भी देखा जाता है. ओलिंपिक के माध्यम से देश अपनी आर्थिक और सामाजिक प्रगति को शोकेस करते हैं. एशिया में केवल जापान, दक्षिण कोरिया और चीन ने ओलिंपिक का आयोजन किया है और तीनों ने इस मौके का इस्तेमाल अपनी आर्थिक प्रगति को विश्व के सामने रखने के लिए किया. विकासशील ब्राजील भी अपनी प्रगति दिखाना चाहता है, फिलहाल हालात उसके पक्ष में नहीं हैं.
खेलों के दो पहलू हैं. उनका आयोजन आर्थिक प्रगति को शो-केस करता है और खेलों में भागीदारी सामाजिक दशा को बताती है. खासतौर से स्वास्थ्य और अनुशासन को. एक और पहलू राजनीतिक भी है. खेलों की दुर्दशा दिखानी होती है, तो हम इशारा राजनीति की ओर करते हैं. और जब राजनीति की दुर्दशा होती है, तो उसे खेल कहते हैं.
एक राय है कि जो देश खेलों में बढ़-चढ़ कर हैं, वहां की जनता की दिलचस्पी राजनीति में कम है. श्रेष्ठ राजनीति जागरूक समाज की देन है. खेल बेहतर समाज बनाते हैं. अलबत्ता यह केवल संयोग नहीं है कि खेलों में पिछड़े भारत की ज्यादातर खेल संस्थाएं राजनेताओं के हाथों में हैं. देश की सबसे पैसे वाली खेल संस्था बीसीसीआइ को लेकर हाल में सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी है, उसका सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है इसे राजनेताओं के शिकंजे से मुक्त करना. खेलों में हम पिछड़े हैं, तो उसके पीछे हमारी राजनीतिक संस्थाओं की भी भूमिका है.
आयोजक के रूप में भारत ने एशिया खेलों और कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन किया है. सबसे पहले एशियाई खेल भारत में ही हुए थे. पिछले साल खबर थी कि भारत 2024 के ओलिंपिक खेलों के आयोजन की दावेदारी पेश कर सकता है, पर ऐसा नहीं हुआ. इसके लिए 15 सितंबर, 2015 आखिरी तारीख थी. जाहिर है, अभी हम इसके लिए तैयार नहीं हैं. ओलिंपिक का आयोजन आसान नहीं है. हम मान रहे हैं कि रियो ओलिंपिक भारत के लिए अब तक के सफलतम खेल होने चाहिए. पर, इसके माने क्या हैं? अब तक की सबसे बड़ी सफलता हमें 2012 के लंदन ओलिंपिक में मिली थी, जहां से हमारे खिलाड़ी छह मेडल जीत कर लाये थे. दो रजत और चार कांस्य.
आधुनिक ओलिंपिक खेल 1896 से शुरू हुए हैं. भारत ने पहली बार 1900 में इसमें हिस्सा लिया, पर उसमें प्रतियोगी भारतीय मूल के नहीं, अंगरेज थे. हमारी वास्तविक भागीदारी 1920 के एंटवर्प खेलों से मानी जाती है. बहरहाल 1900 के खेलों को भी शामिल कर लें, तो हमारी भागीदारी 23 खेलों में रही है, जिनमें भारत ने 26 मेडल जीते हैं.
औसत निकालें, तो हर ओलिंपिक खेल में हमें 1.13 मेडल मिले. छह ओलिंपिक खेलों में हमने एक भी मेडल नहीं जीता. साल 2000 में कर्णम मल्लेश्वरी ने भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीत कर पहली बार महिला वर्ग में भारत की पहचान बनायी. इसके बाद लंदन ओलिंपिक में सायना नेहवाल और मैरी कॉम ने दो कांस्य पदक और जीते हैं. हमें इस उपलब्धि पर गर्व है, पर आकार को देखते हमारा प्रदर्शन इससे बेहतर होना चाहिए. हमसे बेहतर अफ्रीकी देश इथोपिया है, जिसने 12 ओलिंपिक खेलों में 45 पदक जीते हैं, जिनमें 21 स्वर्ण पदक हैं.
क्या इस विफलता का रिश्ता हमारी गरीबी से है या समाज-व्यवस्था से? या हमारी जलवायु से जो हमारी शारीरिक सीमाएं तय कर देती है? या हमारे जींस से है? एमआइटी-अर्थशास्त्रियों अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में लिखा है कि यह मामला जीन का नहीं, कुपोषण का है. भारत के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़े भयावह हैं. पांच साल से कम उम्र के तकरीबन आधे बच्चे कुपोषित (स्टंटेड) हैं. चीन ने नौ ओलिंपिक में 473 मेडल जीते हैं. प्रति ओलिंपिक का उसका औसत 55.9 मेडल का है.
मान लिया हम चीन से तुलना नहीं कर सकते. भारत से बेहतर प्रदर्शन करनेवाले 79 देश हैं, जबकि भारत की जनसंख्या इनमें से 73 देशों की कुल आबादी की दस गुनी है. भारत से आकार में दशमांश तक का ऐसा कोई देश नहीं है, जिसने भारत से कम मेडल जीते हैं, पाकिस्तान और बांग्लादेश को छोड़ कर. इसकी तोहमत क्रिकेट के माथे पर मढ़ी जा सकती है, पर दुनिया की चौथाई आबादी की सारी खेल प्रतिभा को सोखनेवाले क्रिकेट में भी हमने कोई बड़ा कमाल तो किया नहीं है.
खेल व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं. इसमें अनुशासन और नियमबद्धता भरते हैं. विवेकशील, रचनाशील और धैर्यवान बनाते हैं. मैदान में प्रतिभा की जरूरत होती है. अच्छे खिलाड़ी ही जीतते हैं. शोध से साबित होगा कि क्यों अनुसूचित जातियों और जनजातियों के खिलाड़ी बेहतर साबित हुए हैं. 1928 में भारत की हॉकी टीम ने पहली बार ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीता था. उसके कप्तान थे जयपाल सिंह, जिन्होंने झारखंड आंदोलन की नींव डाली. झारखंड आज भी भारतीय हॉकी में अग्रणी है.
हमारे ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के पिछड़ेपन के सामाजिक कारण जरूर कहीं हैं. इन सामाजिक रोगों का इलाज खेलों के पास है. ओलिंपिक में पहली बार कोई भारतीय लड़की जिम्नास्टिक्स की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने जा रही है. दीपा करमाकर त्रिपुरा के सुदूर इलाके से निकल कर आयी है. एथलेटिक्स की टीम में सुदूर जनजातीय इलाके की लड़कियां हैं, जो आनेवाले समय में रोल मॉडल बनेंगी. हमें उनकी ओर ध्यान देना चाहिए. दुर्भाग्य से हम खेलों के समाजशास्त्र की तरफ नहीं, उसके मनोरंजन और कारोबार की ओर ध्यान देते हैं. ध्यान दीजिए. खेल सामाजिक बदलाव के वाहक भी हैं. इस ओलिंपिक में हमें देखना होगा कि किस खिलाड़ी ने बेहतर प्रदर्शन किया और उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
pjoshi23@gmail.com