आर्थिक सुधारों के 25 वर्ष
डॉ भरत झुनझुनवाला अर्थशास्त्री पच्चीस वर्ष पूर्व इन्हीं दिनों वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा बजट प्रस्तुत कर आर्थिक सुधारों को प्रारंभ किया गया था. इन सुधारों का एक प्रमुख आयाम दुनिया के देशों के बीच खुला व्यापार था. 1995 में हमने डब्ल्यूटीओ संधि पर हस्ताक्षर किये थे. इस संधि के अंर्तगत हमने स्वीकार किया था […]
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
पच्चीस वर्ष पूर्व इन्हीं दिनों वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा बजट प्रस्तुत कर आर्थिक सुधारों को प्रारंभ किया गया था. इन सुधारों का एक प्रमुख आयाम दुनिया के देशों के बीच खुला व्यापार था. 1995 में हमने डब्ल्यूटीओ संधि पर हस्ताक्षर किये थे.
इस संधि के अंर्तगत हमने स्वीकार किया था कि निर्धारित सीमा से अधिक आयात कर आरोपित नहीं किये जायेंगे. इससे विश्व व्यापार को गति मिली. लेकिन कई देशों ने डब्ल्यूटीओ से आगे बढ़ कर द्विपक्षीय समझौते किये हैं. उनका मानना था कि डब्ल्यूटीओ के प्रावधान पर्याप्त नहीं हैं.
इन द्विपक्षीय समझौतों को फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (एफटीए) कहा जाता है. एफटीए संपन्न होने के बाद दोनों पक्षों के बीच व्यापार और आसान हो जाता है. मान्यता है कि एफटीए से यूरोपियन बाजार हमारे निर्यातों के लिए खुल जायेंगे. भारत में फैक्ट्रियां लगेंगी और भारी मात्रा में रोजगार बनेंगे. चीन ने इस नीति को अपना कर अपनी जनता की आय में भारी वृद्धि की है. इस दृष्टिकोण को अपनाते हुए नीति आयोग के प्रमुख अरविंद पानागढ़िया ने कहा है कि हमें विश्व बाजार पर कब्जा जमाना चाहिए. इस मंतव्य का स्वागत है.
डब्ल्यूटीओ संधि तथा द्विपक्षीय एफटीए का दूसरा आयाम पेटेंट कानूनों का है. मूल विचार है कि कंपनियों द्वारा किये गये आविष्कारों को उन्हें 20 वर्षों तक बेचने का एकाधिकार होना चाहिए. एफटीए तथा पेटेंट कानूनों के बीच घनिष्ठ संबंध है. विकसित देश अपने बाजार को हमारे निर्यात के लिए तभी खोलते हैं, जब उनकी कंपनियों को पेटेंट की कड़ी सुरक्षा दी जाये. एफटीए के आकलन के लिए जरूरी है कि लाभ-हानि दोनों का समग्र आकलन हो. मेरी जानकारी में नीति आयोग ने ऐसा नहीं किया है.
वर्ष 1995 में डब्ल्यूटीओ संधि के संपन्न होने के बाद विश्व व्यापार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. लेकिन अब इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं. विकसित देशों की जनता एफटीए के विरोध में खड़ी हो रही है. ब्रिटेन में पिछले माह जनमत संग्रह हुआ, जिसमें ब्रिटेन की जनता ने निर्णय दिया कि वे यूरोपीय यूनियन से बाहर आना चाहते हैं. यूरोप के साथ खुले व्यापार को उन्होंने नकार दिया. स्पष्ट है कि विकसित देशों के मुक्त व्यापार के विरुद्ध जनमत बन रहा है.
दरअसल, मुक्त व्यापार से बड़ी कंपनियों को लाभ होता है और आम जनता को हानि. कंपनियों को पूरे विश्व में फैलने व लाभ कमाने का अवसर मिल जाता है. जैसे भारतीय तथा यूरोपीय यूनियन के बीच एफटीए संपन्न हो जाये, तो भारतीय कंपनियों को यूरोप में दवा बेचने का अवसर मिल जायेगा. लेकिन, यूरोपीय कंपनियों को पेटेंट की कड़ी सुरक्षा उपलब्ध कराने से जनता को महंगी दवा खरीदनी पड़ेगी.
फिर भी एफटीए संपन्न करने से हमें कुछ लाभ हो सकता है, चूंकि हमारे यहां श्रमिकों के वेतन कम हैं. भारत में माल की उत्पादन लागत कम आती है. लेकिन, चीन में उत्पादन की लागत हमसे भी कम आती है.
अतः यदि हम मुक्त व्यापार के सिद्धांत को मानते हैं, तो हमारे माल का यूरोपीय यूनियन को अधिक मात्रा में निर्यात होगा. लेकिन साथ ही, चीन से सस्ते माल का आयात होगा और भारतीय श्रमिकों के रोजगार का हनन होगा. वैसे ही जैसे हमारे माल के निर्यात से अमेरिकी श्रमिकों का हो रहा है.
अरविंद पानागढ़िया जैसे मध्यधारा अर्थशास्त्रियों का मानना है कि विकसित देशों के साथ मुक्त व्यापार को अपना कर हम आगे बढ़ेंगे. यह विचारधारा असफल होगी. पहला कारण है कि विकसित देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता संपन्न हो जाये, तो विकसित देशों की कंपनियों को पेटेंट कानून के अंतर्गत भारत में महंगा माल बेचने की छूट मिल जायेगी. बढ़े हुए निर्यातों से हमें हुआ लाभ इस महंगे माल को खरीदने से निरस्त हो जायेगा.
दूसरा कारण, विकसित देशों में एफटीए के विरोध में स्वर जोर पकड़ने से इनके द्वारा एफटीए तभी संपन्न किया जायेगा, जब उनकी कंपनियों को भारत में छूट ज्यादा मिले और हमारे निर्यातों को उनके देश में प्रवेश की छूट कम मिले. तीसरा, हम यदि मुक्त व्यापार के नियम को मानते हैं, तो चीन के लिए अपने बाजार को खोलना पड़ेगा. हमारे श्रमिकों के रोजगार नष्ट होंगे. अतएव मुक्त बाजार के रास्ते हमारे श्रमिकों का हित नहीं स्थापित होगा, जैसा अमेरिका तथा ब्रिटेन में हो रहा है.
आर्थिक सुधारों की 25वीं बरसी पर मुक्त व्यापार के सिद्धांतों पर पुनर्विचार की जरूरत है. तब के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किये गये आर्थिक सुधारों के दो हिस्से में से एक हिस्सा घरेलू सुधारों का था- जैसे उद्योग लगाने के लिए लाइसेंस व्यवस्था को रद्द करना.
इस दिशा में मनमोहन सिंह द्वारा उठाये गये कदमों से देश को लाभ हुआ. लेकिन बाहरी उदारीकरण का न तो विशेष लाभ हुआ है, न ही यह टिकाऊ सिद्ध हो रहा है. अतः सरकार को चाहिए कि घरेलू अर्थव्यवस्था में सुधार पर ध्यान दे. विदेशी निवेश तथा विदेशी बाजारों का अनुभव सुखद नहीं रहा है.