उड़ी-उड़ी रे पतंग उड़ी
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार बारिश की बूंदें बालकनी के ऊपर लगे प्लास्टिक के शेड पर तड़ातड़ पड़ीं, तो लगा कि अब गरमी भागी. सावन आया. सावन माने क्या-क्या. झूले, पतंगें, तीज, मेहंदी, महावर, कजरी, कागज की नाव, भुट्टे. झूले भी कैसे-कैसे. नारियल की रस्सी और लकड़ी की पटरी, जिन पर बच्चे झूल रहे हैं. खटोले […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
बारिश की बूंदें बालकनी के ऊपर लगे प्लास्टिक के शेड पर तड़ातड़ पड़ीं, तो लगा कि अब गरमी भागी. सावन आया. सावन माने क्या-क्या. झूले, पतंगें, तीज, मेहंदी, महावर, कजरी, कागज की नाव, भुट्टे. झूले भी कैसे-कैसे. नारियल की रस्सी और लकड़ी की पटरी, जिन पर बच्चे झूल रहे हैं. खटोले पर पड़े झूले, जिन पर कई औरतें या कई बच्चे इकट्ठे झूलते थे.
सावन में अकसर शादीशुदा लड़कियां घर आती थीं और झूला झूलना उनके लिए कोई विशेष उत्सव और खेल था. मनोरंजन का साधन भी था. लड़कियों का गाना-बजाना, हंसी-खिलखिलाना, मेहंदी, उबटन और आनंद जैसे मायके से ही जुड़ा था. बचपन की सहेलियों से मेल-मुलाकात, सुख-दुख की बातें, सेवई, पकौड़ों, हलवे-पूरी की दावत.
लड़कियां जो ससुराल में इस बात की बाट जोहती थीं कि कब सावन आयेगा, कब उनका भाई आयेगा वे मायके जायेंगी. बिना बुलाये वे उस घर नहीं जा सकती थीं, जहां वे जन्मी, पलीं, बढ़ीं मगर ससुराल में आते ही जो पराया हो गया. मायके ने भी परायेपन को यह कह-कह कर बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि एक दिन ऐसा आयेगा कि उन्हें अपने घर जाना है.
बंदिनी फिल्म का वह गीत, जिसमें जेल की सजा पायी नायिका (नूतन) अन्य बंदिनियों के साथ गाती है- अबके बरस भेज भइया को बाबुल सावन में लीजियो बुलाये रे… इस गाने को सुन कर एक औरत की बेबसी की पुकार पर आज भी आंसू आ जाते हैं. हिंदी फिल्मों में भी बरसात और झूले काफी पाॅपुलर रहे हैं. लेकिन आज की लड़की को न तो झूलों से वह लगाव बचा है, न ही मायके से अलगाव की उन मुसीबतों से दो-चार होना पड़ता है, जहां मायके के एक बुलावे के इंतजार में आंखें सूख जाती थीं. और मायके से कोई आ भी जाये, तो जरूरी नहीं कि ससुराल वाले जाने की इजाजत दे भी दें.
इस दौर में औरतें झूले झूलती थीं, तो लड़के छतों पर चढ़ कर पतंग उड़ाते थे. वह काटा और वह मारा की आवाज से आसमान गूंज उठता था. बारिश बंद मगर भीगे हुए आसमान में जैसे पतंगों के रूप में नीले, गुलाबी, लाल, पीले, हरे, रंग के तरह-तरह के बेशुमार फूल उग आते थे. छतों की भीड़ पतंग उड़ानेवालों को प्रोत्साहित करती थी, तो नीचे पतंग लूटनेवालों की भीड़ लगी रहती थी. कटी पतंग को लूटने का अपना मजा था. कटी पतंग मुहावरे के रूप में भी चलता था- उसकी पतंग काट दी यानी कि उसकी तरक्की की दौड़ में बाधा खड़ी कर दी. पहले पंद्रह अगस्त और वसंत पंचमी के दिन बाकायदा पतंगबाजी के उत्सव और प्रतियोगिताएं होती थीं.
आज न झूले रहे हैं न उनकी ऊंची पींगें ही हैं, न कजरी और न मायके के बुलावे का उस तरह से इंतजार है.
पतंगें भी नहीं रहीं. लोग उड़ाते होंगे, लेकिन अब पहले जैसा उत्साह कहां बचा है. ज्यादा से ज्यादा बड़े होटलों में कभी-कभार तीज उत्सव मनाने के विज्ञापन जरूर दिखते हैं. एक समय में जो त्योहार उत्सव बेहद लोकप्रिय होते हैं, वे बदले वक्त के साथ स्मृति के गर्त में समा जाते हैं. झूलों, पतंगों, सावन के तमाम उल्लास के साथ भी शायद यही हुआ है.
शायद इसी बात को देख कर दिल्ली में सरकार ने पतंग महोत्सव शुरू किया है. यह महोत्सव 23 जुलाई से 15 अगस्त तक चलेगा. सरकार का कहना है कि एक जमाने में दिल्ली में पतंग खूब उड़ायी जाती थी, मगर अब लगातार पतंग उड़ाना कम होता जा रहा है.
इस उत्सव के जरिये इस परंपरा को जिंदा रखने का प्रयास किया जायेगा. अगर अपनी आनंद दायक परंपराएं इस तरह से जिंदा रह सकती हैं, तो पूरे देश में मनाये जानेवाले तरह-तरह के उत्सवों को जीवित रखने का प्रयास हर हाल में किया जाना चाहिए.