इसलिए गायब हैं बेटियां!

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार क्या बिहार के लोग भ्रूण का लिंग नहीं पता करवाते हैं? क्या यहां भ्रूण के लिंग की जांच नहीं होती है? क्या इस राज्य में लिंग जांच कर गर्भ का समापन नहीं होता या करवाया जाता है? क्या यहां का लिंग अनुपात गड़बड़ नहीं है? बिहार के कई इलाकों में जब इन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 29, 2016 4:54 AM
नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
क्या बिहार के लोग भ्रूण का लिंग नहीं पता करवाते हैं? क्या यहां भ्रूण के लिंग की जांच नहीं होती है? क्या इस राज्य में लिंग जांच कर गर्भ का समापन नहीं होता या करवाया जाता है?
क्या यहां का लिंग अनुपात गड़बड़ नहीं है? बिहार के कई इलाकों में जब इन सवालों के जवाब जानने की कोशिश होती है, तो आमतौर पर जवाब मिलता है- यहां ये सब नहीं होता है या ऐसा होता भी है, पता नहीं. दोनों ही सूरत में मतलब निकलता है कि गिरता लिंगानुपात या लिंग जांच जैसी कोई सामाजिक परेशानी, इस राज्य में नहीं है. लोग मानते हैं कि यह समस्या पंजाब या हरियाणा की है. बिहार या झारखंड जैसे राज्य इससे दूर हैं.
इसकी पड़ताल करने के लिए अब जरा कुछ आंकड़ों पर गौर करते हैं. इन आंकड़ों को घर-घर जाकर हर शख्स की गिनती करके दस साल में एक बार इकट्ठा किया जाता है. इनसे पता चलता है कि हमारे समाज में कितने लड़के और कितनी लड़कियां हैं. इन्हीं से‍ लिंगानुपात यानी एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या भी पता चलती है. बेटियों की हालत देखने के लिए कुल आबादी का लिंगानुपात थोड़ा भ्रम पैदा करता है.
इसीलिए शिशु लिंगानुपात यानी छह साल तक की उम्र की कुल आबादी में लिंगानुपात देखा जाता है. यह आंकड़ा बताता है कि लड़‍के-लड़कियों की संख्या का प्राकृतिक संतुलन कैसा है. यह आंकड़ा संकेत देता है कि लड़कियां पैदा हो रही हैं या नहीं या पैदा होने के बाद हमारा समाज उनके साथ कैसा सुलूक कर रहा है. यहां तक कि उन्हें जीने भी दे रहा है या नहीं.
2011 की जनगणना के मुताबिक, बिहार में छह साल तक के कुल बच्चों की संख्या 1 करोड़ 91 लाख 33 हजार 964 है.अब सवाल है कि इनमें कितने लड़के और कितनी लड़कियां होनी चाहिए? आपका जवाब चाहे जो हो, आंकड़े के लिहाज से तसवीर अलग है. इनमें 98 लाख 87 हजार 239 लड़के हैं. लड़कियों की संख्या 92 लाख 46 हजार 725 है. इनके आधार पर 2011 में बिहार का शिशु लिंगानुपात 935 है. क्या लड़के-लड़कियों की संख्या में कुछ फर्क है? हां, लड़कों के बनिस्पत बिहार में 6 लाख 40 हजार 514 लड़कियां कम हैं.
अब भी पता नहीं चल रहा कि कितनी लड़कियां कम हैं? तो जरा हम यह हिसाब लगायें. बिहार में पटना का गांधी मैदान देश के बड़े मैदानों में से एक है. कोई राजनीतिक पार्टी इस मैदान में भरी-पूरी सभा कर लेती है, तो उसे ऐतिहासिक लिखा जाता है. उसी पटना के गांधी मैदान में जितने लोग आ सकते हैं, उससे करीब तीन गुना लड़कियां बिहार की आबादी से गायब हैं. यानी जितनी लड़कियां गायब हैं, उससे तीन गांधी मैदान आसानी से भरे जा सकते हैं. अगर हमें यह तुलना अटपटी लग रही है, तो एक दूसरा आंकड़ा भी हम देख सकते हैं.
नालंदा जिले में राजगीर की आबादी एक लाख 30 हजार 183 है. यानी जितनी लड़कियां आबादी से गायब हैं, उसमें लगभग पांच राजगीर बस सकता है. अब सोचें, अगर किसी दिन हमें पता चले कि राजगीर की पूरी आबादी गायब हो गयी है, तो हम क्या करेंगे? क्या कहेंगे? क्या अफवाह मान कर चुप बैठ जायेंगे? लेकिन बेटियां गायब हो रही हैं और हम चुप हैं!
जनगणना के आंकड़े दस साल पर आते हैं. इसलिए लिंगानुपात के बड़े और आधिकारिक आंकड़े दस साल के बाद मिलते हैं. बीच-बीच में संकेत मिलते रहते हैं. पिछले तीन दशकों के आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार में शिशु लिंगानुपात लगातार घट रहा है. 1991 में यह 953 था. 2001 में 942 हो गया. 2011 में यह 935 हो गया. 2001 की जनगणना के मुताबिक, बिहार के कुल 38 में से 25 जिलों में लिंगानुपात 950 से कम था. 2011 में ऐसे जिलों की संख्या 30 हो गयी.
विकास के पैमाने पर बेहतर माने जानेवाले जिले और शहरी इलाके लिंगानुपात के मामले में पिछड़ रहे हैं. बिहार के शहरी इलाकों का लिंगानुपात 1991 में 950, 2001 में 924 और 2011 में 912 हो गया. यानी जहां पढ़ाई-लिखाई, पैसा और दूसरी सहूलियतें ज्यादा हैं, उन जिलों में बेटियां कम हैं. नमूने के तौर पर पटना, मुजफ्फरपुर, वैशाली और बेगूसराय को देखा जा सकता है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, पटना का लिंगानुपात 909, मुजफ्फरपुर का 915, वैशाली का 904 और बेगूसराय का 919 है.
बिहार का एक पुराना लोकगीत है :
जहि दिन हे अम्मा, भइया के जनमवा‍‍/ सोने छुरि कटइले नार हो.
जहि दिन हे अम्मा, हमरो जनमवा/ खोजइते अम्मा, खुरपी न भेंटे/ झिटकी कटइले हमरा नार हो…
(एक बेटी अपनी मां से शिकायत कर रही है. हे माई! जब भैया पैदा हुआ, तो आपने सोने की छुरी से नाड़ काटी थी. जब मैं पैदा हुई, तो पहले आपने खुरपी तलाश की. जब खर-पतवार साफ करनेवाली लोहे की खुरपी नहीं मिली, तो आपने झिटक कर अपने से मुझे अलग कर दिया.)
तो क्या बिहार की बेटियों के लिए यह लोकगीत अब बेमानी या बीते दिनों की बात हो गयी है? क्या बिहार ने अब यह मानना बंद कर दिया है- वंश बेटे से चलता है, मुक्ति बेटा ही दिलाता है, बेटियां पराया धन होती हैं, बेटा ही बुढ़ापे की लाठी होता है? क्या बेटी पैदा होने पर घर-परिवार में अब वैसी ही खुशी होती है, जैसी बेटा होने पर होती है? क्या अब बिहार में बेटों की चाह खत्म हो गयी है? क्या बेटियां पैदा करनेवाली मांओं को अब बिहार में प्रताड़ना नहीं झेलनी पड़ती है?
अगर ये सब खत्म नहीं हुआ है, तो इसका अर्थ है कि हमारे समाज के बड़े हिस्से में बेटियां अब भी अनचाही हैं. पहले पैदा होने के बाद उसे खत्म कर दिया जाता था, लेकिन तकनीक की तरक्की ने अब लिंग पहचान की सहूलियत दे दी है. उन्हें पैदा होने से रोकनेवाले, रोक रहे हैं.
इसीलिए बेटियां गायब हैं. वे कहीं चली नहीं गयीं, बल्कि उन्हें गायब किया जा रहा है. ये घटते आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार में बेटियों की परवरिश में भेदभाव के साथ-साथ लिंग चयन भी हो रहा है. तो सवाल उठता है कि क्या बिहार तब तक नहीं जागेगा, जब तक वह हरियाणा, पंजाब की तरह खतरे के निशान को पार नहीं कर जायेगा?

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