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दिल्ली-घमसान राजनीति की देन
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हाल में एक वीडियो संदेश में अरविंद केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया- ‘वह मेरी हत्या तक करा सकते हैं.’ इसके पहले उन्होंने मोदी को ‘मनोरोगी’ बताया था, कायर और मास्टरमाइंड भी. यह भी कि मोदी मुझसे घबराते हैं. केंद्र की मोदी सरकार और दिल्ली की केजरीवाल सरकार के बीच […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
हाल में एक वीडियो संदेश में अरविंद केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया- ‘वह मेरी हत्या तक करा सकते हैं.’ इसके पहले उन्होंने मोदी को ‘मनोरोगी’ बताया था, कायर और मास्टरमाइंड भी. यह भी कि मोदी मुझसे घबराते हैं. केंद्र की मोदी सरकार और दिल्ली की केजरीवाल सरकार के बीच जो घमसान इन दिनों मचा है, वह अभूतपूर्व है.
इस वजह से दिल्ली के प्रशासनिक अधिकारों का सवाल पीछे चला गया है और उससे जुड़ी राजनीति घटिया स्तर पर जा पहुंची है. एक तरफ ‘आप’ सरकार का आंदोलनकारी रुख है, तो दूसरी तरफ उसके 12 विधायकों की गिरफ्तारी ने देश की लोकतांत्रिक प्रणाली पर सवालिया निशान खड़े कर दिये हैं. इसकी शुरुआत दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में भाजपा के केजरीवाल विरोधी नितांत व्यक्तिगत, फूहड़ प्रचार से हुई थी.
दिल्ली का मामला न तो सिर्फ संवैधानिक है और न केवल राजनीतिक. इसमें दोनों का कुछ-न-कुछ तत्व है. साल 1991 के 69वें संविधान संशोधन के बाद से, जब से यहां विधानसभा बनी है, ज्यादातर राजनीतिक दल इसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग करते रहे हैं. हालांकि, सबको पता है कि राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण इसमें पेच है. विधानसभा बनने के बाद 1993 में सबसे पहले भाजपा सरकार ने ही पूर्ण राज्य का प्रस्ताव दिल्ली विधानसभा में पास कराया था. तब मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना थे. इसके बाद 11 सितंबर, 2002 में शीला दीक्षित के मुख्यमंत्रित्व में एक बार फिर सर्वसम्मति से पूर्ण राज्य का प्रस्ताव पारित हुआ, तब केंद्र में एनडीए सरकार थी. केंद्र सरकार ने 2003 में राज्यसभा में इस आशय का एक संशोधन बिल भी पेश किया, जिसे संसदीय समिति के पास भेजा गया.
फिर कुछ नहीं हुआ. इसके बाद 26 नवंबर, 2010 को एक बार फिर विधानसभा ने पूर्ण राज्य के दर्जे का प्रस्ताव पारित किया. तब दिल्ली और केंद्र दोनों जगह कांग्रेस की सरकारें थीं. सवाल है कि दिल्ली को केवल केंद्र शासित क्षेत्र बनाये रखने में परेशानी क्या थी? और पूर्ण राज्य बनाने में दिक्कत क्या है? क्या यह राजनीतिक नेताओं के झुनझुने पकड़ाने की कोशिश नहीं है? पिछले ढाई दशक से लुका-छिपी का यह खेल क्यों खेला जा रहा है? और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है?
इसी सवाल का जवाब देने के लिए 1989 में एस बालाकृष्णन समिति बनी थी. समिति ने दुनिया की राजधानियों का अध्ययन करने के बाद सलाह दी थी कि दिल्ली को केंद्र शासित क्षेत्र बनाये रखने के साथ कुछ संतुलनकारी व्यवस्थाएं कर दें. यह व्यवस्था है विधानसभा, मुख्यमंत्री और मंत्रियों के पद. इस समिति की सिफारिशों के आधार पर ही 69वां संविधान संशोधन हुआ था. अब सुप्रीम कोर्ट को तय करना होगा कि संविधान संशोधन की मूल भावना क्या थी और उसकी लोकतांत्रिक मंशा को किस तरह सुरक्षित रखा जा सकता है.
अभी तक यह मामला कांग्रेस और भाजपा की रजामंदी से निबटता रहा है. पर ‘आप’ सरकार ‘प्रताड़ित कार्ड’ पर जीत कर आयी है. वह दो घोड़ों की सवारी करना चाहती है. ‘आंदोलनकारी’ भी और ‘सत्ताधारी’ भी. यही उसकी राजनीति है. बहरहाल, अधिकारों का मामला सुप्रीम कोर्ट में तय होगा, पर बगैर राजनीतिक सहमति के समस्या का समाधान नहीं होगा. संविधान के अनुच्छेद 131 के अनुसार, केंद्र-राज्य के विवादों का निबटारा करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है. लेकिन, उसके पहले तय यह करना होगा कि क्या दिल्ली को राज्य की परिभाषा के अंतर्गत रखा जा सकता है.
गुरुवार को दिल्ली हाइकोर्ट ने जो व्यवस्था दी है, उसके अनुसार दिल्ली केंद्र शासित क्षेत्र है और यहां के उपराज्यपाल कार्यपालिका के प्रमुख हैं और उनकी अनुमति से ही नियम बनाये जा सकते हैं. यह शुद्ध संवैधानिक स्थिति है. लेकिन, सवाल यह भी है कि दिल्ली के वोटरों ने किसे वोट दिया है और किस काम के लिए दिया है? चुने हुए प्रतिनिधियों से ही जनता का सीधा संबंध होता है. ‘आप’ का सवाल है कि फिर दिल्ली में चुनाव कराते ही क्यों हैं? सारी पावर एलजी के पास ही हैं, तो चुनाव का तमाशा क्यों? अन्य केंद्र शासित क्षेत्रों की काउंसिलों और विधानसभा में फर्क ही क्या रह गया?
ऐसा नहीं कि आम आदमी पार्टी को संवैधानिक समझ नहीं है. वह इस विवाद के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बना रही है. आम नागरिक की समझ है कि जिसे उसने चुना है, जवाब भी वही दे. ‘आप’ का उदय परंपरागत राजनीति के समांतर हुआ है. उसे साबित करने की उतावली है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘हम ही हम’ हैं. मोदी सरकार इसमें अड़ंगे लगा रही है.
पिछले साल मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल ने अपने पहले भाषण में ही जाहिर कर दिया था कि वे इस सवाल को उठाते रहेंगे.
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए दिल्ली एनसीटी अधिनियम 1991 में संशोधन करना होगा. संविधान के अनुच्छेद 239 क, 239 क (क) तथा 239क (ख) ऐसे प्रावधान हैं, जो दिल्ली और पुडुचेरी को राज्य का स्वरूप प्रदान करते हैं. इनके उपराज्यपाल राष्ट्रपति को रिपोर्ट करते हैं, जिसका व्यावहारिक अर्थ है केंद्र सरकार को रिपोर्ट करना. परोक्ष रूप से दिल्ली सरकार केंद्र के अधीन है. पूर्ण राज्य बनाने का मतलब है- यह अधीनता खत्म करना.
केंद्र सरकार को राज्य व्यवस्था के अधीन रखना संभव नहीं. यूनियन टेरीटरी और राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते उसे बड़े स्तर पर आर्थिक मदद मिलती है. उसके पास आमदनी का कोई स्वतंत्र जरिया नहीं है, जो विश्व स्तर की राजधानी का विकास कर सके? पूर्ण राज्य बनाने के पहले दिल्ली की व्यवस्था का विभाजन करना होगा. नगरपालिका व्यवस्था में अभी यह विभाजन है.
अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी दिल्ली जैसा ही राजधानी-नगर है. वह संघ सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है, इसलिए उस पर नियंत्रण अमेरिकी संसद का है. वहां मेयर और नगरपालिका भी है, पर वह अलग राज्य नहीं है.
यह केजरीवाल और मोदी का मामला नहीं है. यह राष्ट्रीय राजधानी का मामला है. इसे ठीक करने के लिए केंद्र को भी पहल करनी होगी. कांग्रेस को भी सहयोग देना होगा और ‘आप’ को भी अपने रुख में बदलाव लाना होगा.
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