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टैगोर और प्रेमचंद के देश में

चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज क्या राष्ट्रवादी होने और मनुष्य होने में कोई बुनियादी विरोध है? हिंदी टेलीविजन की चलती हुई भाषा में पूछें, तो क्या ‘दिल में इंडिया’ को जगह देने पर सचमुच किसी हिंदुस्तानी के लिए ‘जुबां पर सच’ लाना कठिन हो सकता है? ये सवाल पुराने हैं, अपने देश में कम-से-कम सौ […]

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज

क्या राष्ट्रवादी होने और मनुष्य होने में कोई बुनियादी विरोध है? हिंदी टेलीविजन की चलती हुई भाषा में पूछें, तो क्या ‘दिल में इंडिया’ को जगह देने पर सचमुच किसी हिंदुस्तानी के लिए ‘जुबां पर सच’ लाना कठिन हो सकता है? ये सवाल पुराने हैं, अपने देश में कम-से-कम सौ साल पुराने तो जरूर ही. आखिर इन प्रश्नों से टकराने और उत्तर तलाशनेवाली रवींद्रनाथ टैगोर की किताब ‘नेशनलिज्म’(सन् 1917) उम्र की एक सदी पूरी कर रही है.

प्रश्न पुराने हो सकते हैं, लेकिन पुराना होना अप्रासंगिक होने की गारंटी नहीं. तभी तो प्रेमचंद की जन्मतिथि (31 जुलाई) पर हिंदी की पत्रिका हंस की सालाना गोष्ठी में मानुष-धर्म और राष्ट्र-धर्म के बीच बुनियादी भेद का संकेतक एक विषय ‘लोकतंत्र और राष्ट्रवाद : मीडिया की भूमिका’ बहस के लिए रखा गया. तात्कालिक प्रसंग जम्मू-कश्मीर में जारी हिंसक घटनाओं और उनकी रिपोर्टिंग का था. पत्रिका की सालाना गोष्ठी मानो पूछना चाहती थी कि क्या अलगाववादी रुझानों वाले जम्मू-कश्मीर की घटनाओं की यथातथ्य रिपोर्टिंग राष्ट्रवादी होकर की जा सकती है?

गोष्ठी के विषय का एक स्थायी प्रसंग भी है. गोरक्षा से लेकर कश्मीर-रक्षा तक बहुत से मसले हैं, जैसे एटमी ऊर्जा के संयंत्र, बड़े बांध, सरकारी और काॅरपोरेटी परियोजनाओं के लिए भूमि-अधिग्रहण, अपने संविधान-प्रदत्त हक से वंचित होते हाशिये के समुदायों का हिंसक आक्रोश. इन विषयों पर अगर कोई सरकारी रीति-नीति के विरोध में कुछ कहे, तो नागरिक समाज का सबसे मुखर और ताकतवर तबका उसे राष्ट्र-विरोधी ठहराता है. यह तबका अपने पद-प्रतिष्ठा, प्रभाव और ज्ञान-निर्माण के औजार (जैसे मीडिया) पर अपनी बढ़त के सहारे किन्हीं विषयों को राष्ट्र के विकास और एकता-अखंडता से जोड़ देता है. ऐसा करने के तरीके भी बड़े जाने-पहचाने हैं.

कभी हिंसा की घटनाओं पर काबू पाने के क्रम में शहादत हासिल करनेवाले सैन्यकर्मियों की दुहाई दी जाती है, कभी बहुसंख्यक धर्म-समुदाय की आहत धार्मिक भावनाओं का हवाला दिया जाता है, तो कभी किसी काम जैसे भूमि अधिग्रहण के रुकने से देश की जीडीपी को होनेवाले नुकसान का हवाला. राष्ट्रभक्ति की रामकहानी में शामिल होकर कोई विषय प्रश्नों के दायरे से बाहर हो जाता है. उससे जुड़े सहज मानवाधिकारों के प्रश्न गौण हो जाते हैं. अगर आपने मनुष्य-धर्म निभाया और प्रश्न पूछ लिया, तो ज्ञान-निर्माण के ठीहों पर काबिज मुखर तबका आपको राष्ट्र की मूर्ति खंडित करने का अपराधी ठहराता है.

इसलिए यह मान कर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता कि राष्ट्रवादी होने और मानुष-धर्मी होने के बीच के विरोध के बारे में टैगोर या फिर प्रेमचंद ने बहुत पहले सोचा और सुलझा लिया था. किसी प्रसंग में महत्वपूर्ण उत्तर नहीं होता, महत्वपूर्ण हमेशा पूछा गया सवाल होता है. कालक्रम में उत्तर अप्रासंगिक हो सकता है और ठीक इसी कारण किसी प्रसंग में प्रश्न को फिर से खड़ा किया जा सकता है.

राष्ट्रधर्म और मानुष-धर्म में विरोध का प्रश्न कुछ ऐसा ही है. टैगोर का उत्तर तो दो टूक था कि ‘मैं किसी एक राष्ट्र के नहीं, बल्कि तमाम राष्ट्रों यानी राष्ट्र मात्र की धारणा के खिलाफ हूं.’ टैगोर राष्ट्र को शक्ति-संगठन की विराट मशीन के रूप में देखते थे, ऐसी मशीन जो लगातार अपने मानव-रूपी कल-पुर्जों पर मजबूत और कारगर होने का दबाव बनाये रखती है.

राष्ट्रवाद पर उनका नैतिक आरोप भी यही था कि इस दबाव में मनुष्य आत्म-त्याग की भावना और रचनाशीलता की अपनी ऊर्जा खो देता है. टैगोर की नजर में राष्ट्रवाद एक ‘उन्माद’ है. इस उन्माद से छुटकारे में ही भारत की स्वत्व-प्राप्ति देखते हुए उन्होंने लिखा कि ‘मेरे देशवासी उस शिक्षा से लड़ कर सच्चे अर्थों में अपने भारत को हासिल कर पायेंगे, जो उन्हें सिखाती है कि मानवता के आदर्शों से कहीं ज्यादा श्रेष्ठतर अपना देश है.’ टैगोर की लीक पर प्रेमचंद ने निस्संकोच कहा कि ‘वर्तमान राष्ट्र यूरोप की ईजाद है और राष्ट्रवाद वर्तमान युग का शाप, प्राणी मात्र को भाई समझनेवाला ऊंचा और पवित्र आदर्श इस राष्ट्रवाद के हाथों ऐसा कुचला गया कि अब उसका कहीं चिह्न भी नहीं रहा.’

भारत राष्ट्र बने मगर यूरोपीय राष्ट्र के तर्ज पर नहीं, विभिन्नताओं को मिटा कर एकसार करना भारत का धर्म नहीं. टैगोर यह बीसवीं सदी की शुरुआत में अपने लेख ‘भारतवर्षेर इतिहास’ में कह चुके थे. प्रेमचंद ने भी ऐसा ही लिखा है- ‘हम उन बुराइयों से बचना चाहते हैं, जिनमें अन्य अधिकतर राष्ट्र पड़े हुए हैं.

हम वह स्वराज चाहते हैं, जिसमें स्वार्थ और लूट प्रधान न हो, नीति और धर्म प्रधान हो.’ आजाद भारत का बुनियादी विचार अंतिम जन, लोकतंत्र और संघीय ढांचे के भीतर विभिन्न राष्ट्रीयताओं को समेटनेवाली महादेशीयता टैगोर और प्रेमचंद सरीखे संस्कृति-चिंतकों की देन है. इस देन से हम जितने दूर होंगे, हमारा राष्ट्रवाद मानुष-धर्म का उतना ही विरोधी होता जायेगा.

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