आत्महंता संवेदनहीनता

सुबह पौने छह बजे काम से लौटते एक व्यक्ति को एक टेम्पो रौंद देता है. ड्राइवर उतर कर तड़पते आदमी को देखता है और जल्दी ही अपना टेम्पो लेकर चला जाता है. आंधे घंटे बाद उसका कोई मित्र मदद के लिए आता है. इस दौरान उस सड़क से 140 कारें, 82 टेम्पो, 181 मोटरसाइकिलें और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 12, 2016 6:34 AM
सुबह पौने छह बजे काम से लौटते एक व्यक्ति को एक टेम्पो रौंद देता है. ड्राइवर उतर कर तड़पते आदमी को देखता है और जल्दी ही अपना टेम्पो लेकर चला जाता है. आंधे घंटे बाद उसका कोई मित्र मदद के लिए आता है.
इस दौरान उस सड़क से 140 कारें, 82 टेम्पो, 181 मोटरसाइकिलें और 45 पैदल लोग गुजर चुके होते हैं, जिनमें आपात सेवा के लिए तैनात पुलिस की एक गाड़ी भी शामिल है. इस बीच एक आदमी वहां रुकता है और घायल का फोन उठा कर चल देता है. सात बजे पुलिस उसे अस्पताल ले जाती है, पर तब तक बहुत ज्यादा खून बहने से वह मर चुका होता है. बुधवार की यह घटना देश की राजधानी दिल्ली की है.
हमारे समाज के असंवेदनशील होते जाने को रेखांकित करनेवाली ऐसी घटनाएं देश के अन्य इलाकों में भी घटती रही हैं. उत्तर प्रदेश के बहराइच के एक सरकारी अस्पताल में तेज बुखार से तपते एक बच्चे की मौत इसलिए हो गयी, क्योंकि 20 रुपये की रिश्वत न मिलने पर स्टाफ ने उसे जरूरी इंजेक्शन नहीं दिया. समृद्धि बढ़ने, शहरीकरण के विस्तार और उपभोक्तावाद के सघन होने से हमारा जीवन सुखमय भले हुआ हो, पर दूसरों की तकलीफों से मुंह मोड़ लेने की प्रवृत्ति भी हमारे आचार-व्यवहार का मुख्य हिस्सा बनती जा रही है.
जब समाज ही असंवेदनशील होता जा रहा है, तो फिर उसी समाज से आनेवाले प्रशासकों और राजनेताओं की मानसिकता भी वैसी ही बनती जायेगी न. पीड़ित की मदद के लिए हाथ बढ़ाने की समझ ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है तथा सभ्य समाज को रचती है. अपने-अपने स्वार्थ की येन-केन-प्रकारेण सिद्धि की बीमार मानसिकता से अंततः एक बीमार समाज ही निर्मित होता है, भले ही भौतिक रूप से चाहे वह जितना भी संपन्न क्यों न हो. यदि हम एक घायल को अस्पताल नहीं पहुंचा सकते हैं, किसी अत्याचार का प्रतिकार नहीं कर सकते हैं, किसी बेबस को सहारा नहीं दे सकते हैं, तो फिर हम एक अच्छा समाज, परिवेश और देश भी नहीं बना सकते हैं.
जाहिर है, किसी मजबूर पल में हमें भी मदद के लिए तरसते हुए तड़प कर मर जाना होगा. हमें व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर मनुष्य और समाज के रूप में कमतर होते जाने पर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है. हमारा रोग खतरनाक स्तर पर जा पहुंचा है. इसे इलाज की दरकार है.

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