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आजादी : सपना और हकीकत
रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की परिणति ‘सत्ता के हस्तांतरण’ में हो जायेगी, यह उन स्वाधीनता सेनानियों ने कभी नहीं सोचा था, जिनके लिए आजादी का अर्थ पूरी आजादी से था. आजादी की लड़ाई में एक साथ कई धाराएं सक्रिय थीं. केवल कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी. राष्ट्रीय स्वाधीनता-संघर्ष का इतिहास […]
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की परिणति ‘सत्ता के हस्तांतरण’ में हो जायेगी, यह उन स्वाधीनता सेनानियों ने कभी नहीं सोचा था, जिनके लिए आजादी का अर्थ पूरी आजादी से था. आजादी की लड़ाई में एक साथ कई धाराएं सक्रिय थीं. केवल कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी.
राष्ट्रीय स्वाधीनता-संघर्ष का इतिहास कांग्रेस का इतिहास नहीं है. ‘स्वराज’ के स्वरूप को लेकर उस दौर में सभी एकमत नहीं थे. आजादी की लड़ाई मात्र राजनीतिक लड़ाई नहीं थी. वह आर्थिक लड़ाई भी थी. ब्रिटिश सत्ता के साथ ही वह उन लोगों से भी लड़ाई थी, जो इसके सहयोगी थे. यह आजादी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, मानसिक, नैतिक, वैचारिक थी. आजादी की लड़ाई व्यापक स्तरों पर थी, जिसे क्रमश: सीमित किया गया. इसके इस व्यापक क्षेत्र को समझौतों के जरिये सीमित किया गया. आजादी का उद्देश्य और लक्ष्य यह नहीं था कि केवल अंगरेज यहां से भाग जायें. अंगरेजों की बनायी व्यवस्था को बदलना वास्तविक लक्ष्य था. आजादी एक स्वप्न था. सत्ता और व्यवस्था से, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और भेदभावों से मुक्ति का स्वप्न. संघर्ष समझौते में बदला. 15 अगस्त की आजादी अधूरी आजादी है.
15 अगस्त, 1947 से 1957 तक के दस वर्षों के लेखन, विचार और चिंतन को, जो आजादी से संबंधित है, अगर व्यवस्थित रूप में एकत्र किया जाये, तो यह स्पष्ट है कि इस आजादी से असंतुष्टों की संख्या कम नहीं थी.
दिनकर ने लिखा था- ‘भटका कहां स्वराज?/ बोल दिल्ली/ तू क्या कहती है/ तू रानी बन गयी/ वेदना जनता क्यों सहती है?/ सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?/ उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में?’ नागार्जुन ने स्वदेशी शासक कविता लिखी- स्वतंत्र भारत के आरंभिक एक दशक के साहित्य में इसकी तलाश-पहचान की जा सकती है. ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम्’ के उद्घोष के साथ तिरंगा फहरा कर गोली खानेवालों, फांसी चढ़नेवालों और आजीवन कारावास की सजा भोगनेवालों ने सपनों में भी यह नहीं सोचा था कि जो आजादी के आंदोलन में कहीं नहीं थे, ब्रिटिश शासन के लगभग हिमायती थे, वे एक दिन भारत माता की जय बोलेंगे, न बोलनेवालों को राष्ट्रद्रोही घोषित करेंगे. ‘वंदे मातरम्’ अपने लाभार्थ बोलेंगे और तिरंगा फहरा कर अपने को राष्ट्रभक्त घोषित करने का भ्रम उत्पन्न करेंगे.
जिनके लिए आजादी एक स्वप्न था, आज उनमें से कोई जीवित नहीं है. उनकी संतानें भी कम जीवित हैं और पारिवारिक जन उनकी कुर्बानियों को कभी-कभार याद कर लेते हैं. इक्कीसवीं सदी के भारत में और आज 15 अगस्त के दिन जब हम स्वतंत्रता की 70वीं वर्षगांठ, धूम-धाम से मना रहे हैं (जश्न-ए-आजादी).
यह सवाल अवश्य पूछा जाना चाहिए कि गरीबों, बेरोजगारों, किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, दलितों के लिए क्या सचमुच स्वराज्य है? आज जो भ्रष्टाचार, दुराचार, बलात्कार, हिंसा, अपराध, अन्याय, उत्पीड़न, शोषण, भेदभाव, लूट और झूठ है, उसका आजादी से कैसा रिश्ता है? आज असहिष्णुता, असुरक्षा, भय और आतंक का माहौल क्यों है? जो यथार्थ है, उसका आजादी के सपने से दूर-दूर का कोई संबंध नहीं है. गांधी के सपनों के स्वराज्य में जाति-भेद, धर्म-भेद और किसी प्रकार के भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं थी. 1931 में ही वे यह कह रहे थे- जो स्वराज्य श्रमिकों और कृषकों के लिए नहीं हो, उसका कोई अर्थ नहीं होगा.
गबन (1930) उपन्यास में देवीदीन खटिक ने यह यह कहा था कि आजादी के बाद राजनेता कुमार्गी हो सकते हैं. आहुति कहानी में प्रेमचंद ने लिखा था- मेरे लिए स्वराज्य का यह अर्थ नहीं है कि जाॅन की जगह गोविंद बैठ जाये. गोविंद जॉन के स्थान पर बैठे और आज उनके वंशजों की सहयोगियों की संस्था कहीं अधिक शक्तिशाली है. सत्ता के हस्तांतरण की परिणति खोखले जनतंत्र में हो गयी. स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा व्यवहार में नहीं है. राजनीितक दलों ने भारत के संसदीय लोकतंत्र को अधिक रुग्ण बना दिया है.
आज का दिन पुनरावलोकन का है. हम कहां से चले थे और कहां आ पहुंचे हैं? तिरंगे के साथ कई सवाल लहरा रहे हैं. दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार क्यों? क्यों पूर्वोत्तर राज्य अशांत हैं? क्यों जम्मू-कश्मीर अशांत है? माओवादी कहां से आये? क्यों आये? हमारा स्वराज्य सबके कल्पनार्थ क्यों नहीं है?
क्यों अन्याय बढ़ रहा है? क्यों 43 प्रतिशत जजों (हाइकोर्ट में) का अभाव है? सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश क्यों सरकार से कह रहे हैं कि उसका रवैया ठीक नहीं है? जजों की नियुक्ति और उनका स्थानांतरण ही लंबित नहीं है, आजादी भी लंबित है. 70वें वर्ष में हम इसकी जितनी जल्द पहचान कर लें, उतना बेहतर है. समय बलवान है. आजादी जश्न नहीं है, वह आज भी एक सपना है.
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