झारखंड में सरकारी योजनाओं का हाल और उसमें सरकारी धन की लूट-खसोट की बात किसी से छिपी नहीं है. निडर व लापरवाह अधिकारी मनमानी करते हैं और जनता त्राहि-त्राहि करती रहती है. सरकार गरीबों-जरूरतमंदों के लिए योजनाएं बना कर बेफिक्र हो जाती है. उसे लगता है कि हमारी जिम्मेवारी खत्म हो गयी. जबकि सच ठीक इसके उलट है. सरकारी योजनाएं जरूरतमंद लोगों से कोसों दूर हैं.
यह बात सरकार की नजर में भी है. राज्य के कृषि मंत्री योगेंद्र साव का यह हालिया बयान भी इस बात की पुष्टि करता है- ‘झारखंड के अधिकारी कुरसी पर बैठ कर निर्णय लेते हैं, जबकि हमलोग (नेता) गांव में कुत्ता-बिलाई की तरह घूमते रहते हैं. अगर अधिकारी गांव में जाते भी हैं, तो दलालों के चंगुल में फंस जाते हैं और मुर्गा खाकर निर्णय लेते हैं कि किसे काम देना है. ऐसे में कहां से काम होगा? सरकार का विकेंद्रीकरण हो गया है, पर पावर का विकेंद्रीकरण बाकी है.’ पर बात यहीं खत्म नहीं होती. बेलगाम नौकरशाही सरकार की विफलता का संकेत है.
मंत्री महोदय का उपरोक्त बयान जनसभा में तालियां तो बजवा सकता है, पर समस्या का निदान नहीं दे सकता. सवाल उठना लाजिमी है कि अगर मंत्री जी को हालात की जानकारी है, तो वे इस दिशा में क्या कर रहे हैं? बात अगर उन्हीं के विभाग की जाये, तो ऐसे अधिकारियों को चिह्न्ति करने के लिए क्या कदम उठाये गये? अगर जवाब ‘ना’ है, तो क्या इसके लिए मंत्री दोषी नहीं हैं? क्या राज्य के एक जिम्मेवार मंत्री को ऐसी बातें करते हुए इस बात का जरा भी भान हुआ कि अगर नौकरशाही को लेकर मंत्री जी खुद इतने निराश हैं, तो आम आदमी क्या करेगा?
जरूरत इस बात की है कि शासन को और चुस्त-दुरुस्त बनाया जाये. सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों को उनकी जिम्मेवारी का एहसास हो. उन्हें इसका इल्म हो कि जनता के प्रति उनके कर्त्तव्य कितने महत्वपूर्ण हैं. हर किसी की जवाबदेही तय होनी चाहिए. वरना सरकारें बदलती रहेंगी, हर साल कैलेंडर बदलते रहेंगे, पर राज्य का विकास और जनता की समस्याएं जस की तस ही रहेंगी. आम आदमी अपने अधिकारों और मूलभूत सुविधाओं से वंचित ही रह जायेगा. यह स्थिति बदली नहीं गयी, तो फिर लोकतंत्र का क्या मतलब?