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रंगीन कुर्ता और किसानी

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान जब शहर से गांव लौटा, तो सुनता था कि कुर्ता देहाती दुनिया का वेश है, लेकिन महानगर में जब तक रहा कुर्ता में ही रहा. दरअसल, कथावाचक को कुर्ते से अजीब मोह है. कुर्ता किसी रंग का हो, उसमें कॉलर होना चाहिए और हां, बटन काले रंग का हो. […]

गिरींद्र नाथ झा

ब्लॉगर एवं किसान

जब शहर से गांव लौटा, तो सुनता था कि कुर्ता देहाती दुनिया का वेश है, लेकिन महानगर में जब तक रहा कुर्ता में ही रहा. दरअसल, कथावाचक को कुर्ते से अजीब मोह है. कुर्ता किसी रंग का हो, उसमें कॉलर होना चाहिए और हां, बटन काले रंग का हो. कॉलर लगते ही कुर्ता उसका हमदम बन जाता है.

कुर्ते से उसकी ढेर सारी यादें जुड़ी हैं. बचपन में उसे गोल कुर्ता ही नसीब होता था, वह भी गले में लखनवी कढ़ाई वाला. पता नहीं उसे उस उजले रंग के गोल गले वाले कुर्ते से क्यों नफरत थी. वह जब भी गोल गला वाला कुर्ता शरीर में डालता, तो लगता मानो जबरन किसी ने माला चढ़ा दिया हो. वैसे बड़ी बारीकी से उस रेडिमेड कुर्ते के गले पर कढ़ाई चढ़ी होती है. कला के जानकार इसमें कई रंग, कई कोण ढूंढ़ सकते हैं, लेकिन किसान को तो कॉलर वाले कुर्ते में ही सारी कला दिखती थी.

जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है, तो कथावाचक कपड़े को लेकर अपनी मर्जी शुरू करता है. दिल्ली के जनपथ पर लगनेवाले बाजार से ढेर सारे कॉलर-धारी कुर्ता उठाने लगता है. हर रंग के कुर्ते उसके खाते में गिरते हैं. आज सुबह कुर्ते के व्यवहार ने उसे जता दिया कि कपड़े की जिंदगी तन से कैसे जुड़ जाती है.

उसे दिल्ली के सत्यवती कॉलेज का खेल-मैदान याद आता है, जहां एक बार ऊंची चहारदिवारी का सहारा लेकर लेटे-लेटे सर्दी में धूप सेंकते वक्त अरविंद पद्मनाभन ने पूछा था कि आखिर कुर्ता ही क्यों? शर्ट क्यों नहीं? कथावाचक ने जवाब दिया था- ‘कुर्ता आजादी है, तन की आजादी’. जवाब सुन कर अरविंद खूब हंसा था. वह तन की आजादी का अर्थ निकालने लगा था.

सर्दी की उस शाम बतरा सिनेमा के पास चावला ढाबे में कथावाचक ने कुर्ते की व्याख्या शुरू की थी. अरविंद की हंसी के जवाब में उसने कुर्ते की फ्री-साइज पर बकैती शुरू की थी. कथावाचक को कुर्ते घुटने के ऊपर तक ही सहज लगे, घुटने के नीचे आते ही कुर्ता उसे अ-व्यवहारी लगने लगता है. कुर्ते से संबंध बनाये रखने के लिए उसकी लंबाई पर वह हमेशा सजग रहा.

अरविंद सूट-बूट में अब बेंगलुरु की एक बड़ी कंपनी में बकैती करता है, बकौल अरविंद- ‘दोस्त, रात में सोते वक्त उजला कुर्ता पहनता हूं, तन की आजादी के लिए. दिन में पहन नहीं सकता, क्योंकि टाइ लपेटनी पड़ती है हमें.’ यह सुन कर कथावाचक मुस्कुराने लगता है.

किसान को गोल गला और कॉलर के बीच कुर्ते का एक और रूप चंपानगर में भी दिखता है. देखिये न, कुर्ते के संग अंचल भी इस पोस्ट में समा गया है. पूर्णिया जिले में एक रजवाड़ा था, राज-बनैली. इस परिवार के कुछ सदस्यों के तन पर जो कुर्ता होता है, उसके गले के नीचे रेखा सीधी नहीं, बल्कि वक्र होती है, मतलब टेढ़ी. कुर्ता का यह रूप इस वस्त्र की आजादी की तरफ हमें मोड़ता है. वैसे लोग कहते हैं कि भागलपुरी सिल्क से बने कुर्ते पर ऐसी रेखाएं सबसे अधिक जंचती हैं.

खैर, कुर्ते के सफर में फेब इंडिया की भी अपनी उपस्थिति है. इस ब्रांड के कुर्ते अपनी सादगी के लिए मशहूर हैं, हालांकि मूल्य अधिक चुकाना पड़ता है. आपके किसान को अंचल के बांग्ला भाषी इलाके की याद आती हैं, जहां बड़े-बुजुर्ग आधा बांह वाले कुर्ते में उसे दिखते हैं.

बचपन का मानस कुलांचे मारने लगता है. उसे किशनगंज के सुभाष पल्ली चौक पर मौजूद कालीबाड़ी के सामने मिठाई वाले चिन्मय दा की बोली कान में गूंज उठती है- ऐ, सुनो तो, तुमि रसगुल्ला खेबो की? यह लिखते वक्त मन में मित्र राजशेखर का लिखा गीत बजने लगा है- मेरा कातिक रंग, मेरा अगहन रंग, मेरा फागुन रंग, मेरा सावन रंग……

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