बाढ़ से भयावह तबाही
बाढ़ से तबाही के बारे में देश के नीति-नियंता सब कुछ जानते हैं. वे जानते हैं कि बांग्लादेश के बाद भारत दुनिया का सर्वाधिक बाढ़-प्रभावित देश है और यह भी कि गंगा बेसिन देश के सबसे बाढ़-प्रवण इलाकों में शुमार है. लेकिन, यह जानना नीतियों की बनावट में कभी उतर नहीं पाता. तभी तो साल […]
बाढ़ से तबाही के बारे में देश के नीति-नियंता सब कुछ जानते हैं. वे जानते हैं कि बांग्लादेश के बाद भारत दुनिया का सर्वाधिक बाढ़-प्रभावित देश है और यह भी कि गंगा बेसिन देश के सबसे बाढ़-प्रवण इलाकों में शुमार है.
लेकिन, यह जानना नीतियों की बनावट में कभी उतर नहीं पाता. तभी तो साल बदलते जाते हैं, लेकिन बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, असम जैसे राज्यों में बाढ़ से तबाही की कहानी नहीं बदलती. टूटते तटबंध, खतरे के निशान को लांघता नदी का पानी, किसी ऊंचे ठीहे की खोज में जान बचा कर भागते लोग, पानी में डूबती फसलें, दाना-पानी को तरसते मवेशी. अखबार के पन्ने और टीवी के परदे पर जान-माल के नुकसान की खबरों के बढ़ते जाने के साथ-साथ जन-प्रतिनिधियों द्वारा बाढ़-प्रभावित इलाकों में हवाई सर्वेक्षण और फौरी राहत की बातें! आखिर, बाढ़ का पानी अपनी ताकत भर नुकसान करके उतर जाता है. कुछ लोग अपने घर-बार और रोजी-रोजगार से हमेशा के लिए उजड़ कर कहीं और पलायन कर जाते हैं, जबकि ज्यादातर लोग बिखरी हुई हिम्मत समेट कर फिर से जिंदगी की शुरुआत करने की कोशिश करते हैं.
शासन के गलियारे से लेकर गांव के चौबारे तक यही मान लिया जाता है कि बाढ़ कुदरत का प्रकोप है और इससे बच पाना बहुत मुश्किल. यह भी मान लिया जाता है कि राज और समाज ऐसी विपत्ति में बस राहत और बचाव के ही काम कर सकते हैं, बाढ़ पर नियंत्रण नहीं. राहत-बचाव का मसला ही बाढ़ पर होनेवाली सार्वजनिक चर्चा की धुरी बन जाता है. लोग अपने सूबे की सरकार को कोसते हैं और सूबे की सरकार केंद्र सरकार को उलाहना देती है. लेकिन, इस मूल बात पर चर्चा नहीं हो पाती है कि बाढ़ प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानव-निर्मित आपदा है.
देश के एक-तिहाई हिस्से में बाढ़ से तबाही की कहानी इस बार भी कमोबेश ऐसी ही है, लेकिन एक महत्वपूर्ण अंतर के साथ. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साफगोई से कह दिया है कि जब तक गंगा नदी की तली में जमा होती गाद से छुटकारा नहीं मिलता, तब तक बाढ़ की विपदा से मुक्ति मुश्किल है.
लेकिन, गंगा की तली को गाद से छुटकारा दिलाने का काम किसी एक राज्य का नहीं है. गंगा स्वयं में एक पूरे प्रवाह-तंत्र का नाम है और अपने विराट जलमार्ग के भीतर एक से ज्यादा बड़े राज्यों को समेटती है. सो, समस्या का समाधान संघीय ढांचे के भीतर ही मुमकिन हो सकता है. इसलिए इसमें पहल केंद्र को ही करनी होगी.
साथ ही, यह भी सोचना होगा कि नदी में अत्यधिक मात्रा में गाद आखिर किसकी करनी से जमा होती है, क्या नदी की तली में जमा होनेवाली गाद का कोई रिश्ता विकास के आधुनिक सोच-विचार से है? नीतीश कुमार ने गंगा की भयावह बाढ़ से निजात के लिए फरक्का बांध को हटाने का उपाय सुझाया है और यह भी कहा है कि गाद प्रबंधन के लिए केंद्र सरकार को ठोस नीतिगत पहल करनी चाहिए.
इस समय देश के कई राज्यों में बाढ़ की स्थिति गंभीर है, जिससे लाखों लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. बिहार में गंगा और कोसी सहित कई नदियां अनेक जगहों पर खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं.
इस बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बाढ़-प्रभावित राज्यों को हर जरूरी मदद मुहैया कराने का भरोसा दिया है. लेकिन, अब जरूरत एक दीर्घकालिक समाधान की भी है. जैसा कि नीतीश कुमार ने कहा है, बाढ़ के कारणों के समुचित अध्ययन के लिए तुरंत विशेषज्ञों की एक टीम बनायी जानी चाहिए और उसके सुझावों के अनुरूप कदम उठाये जाने चाहिए. बाढ़ से तबाही के दौरान तो यह समस्या चिंता का सबब बनती है, लेकिन नदी का पानी उतरने के साथ यह चिंता भी राजनेताओं के चित्त से उतर जाती है.
बिहार में मौजूदा त्रासदी के प्रारंभिक आकलन के अनुसार, दो लाख हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में लगी फसल बरबाद हो गयी है और हजारों घर टूट चुके हैं. मरनेवालों की संख्या 100 से अधिक हो चुकी है.
भविष्य में जानो-माल के ऐसे भयावह नुकसान से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि इस आपदा को लेकर सरकार एक स्पष्ट नीति बनाने पर गंभीरता से काम शुरू करे. नदियों पर बने बांध-बराजों के कारण नदी में गाद जमा होने, मिट्टी के टीले बनने, तटबंधों और कगारों के टूटने जैसी समस्याओं का समाधान जरूरी हो गया है. गंगा और कोसी जैसी नदियां तेजी से अपना रास्ता बदलती हैं. इस बाबत उपलब्ध अध्ययनों और सुझावों को अमलीजामा पहनाने की जरूरत है. शहरों के लगातार बढ़ते जाने और नदियों में कचरा डालने तथा तटीय क्षेत्रों में निर्माण कार्यों से भी नदियों की प्रवृत्ति पर नकारात्मक असर पड़ा है.
दरअसल, नदी को जीवन व्यवस्था का अभिन्न अंग मानने की जगह हम उसे पानी की आपूर्ति करनेवाली एक प्रणाली मान बैठे हैं. यह मानसिकता आत्मघाती है. कुछ महीने पहले सूखे के मामले पर सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र सरकार ने बताया था कि उसके पास सूखे से निबटने की कोई नीति नहीं है.
अफसोस की बात है कि बाढ़ के साथ भी यही मुश्किल है. अब जब बिहार के मुख्यमंत्री ने नीति बनाने की मांग की है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार इस पर कोई ठोस पहल करेगी. हर साल बाढ़ की विभीषिका झेलने को अभिशप्त राज्यों को इससे बड़ी राहत मिलेगी.