बोल कि लब आजाद हैं तेरे
रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार पाकिस्तान में फौजी शासन का एक लंबा इतिहास है. भारत आजादी से अब तक, आपातकाल की अल्पावधि को छोड़ कर, एक लोकतांत्रिक देश है. सैनिक शासन में जहां बोलने और लिखने पर पाबंदी होती है, वहां लोकतंत्र में इसकी पूरी आजादी होती है. फैज ने जब लिखा- ‘बोल कि लब आजाद हैं […]
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
पाकिस्तान में फौजी शासन का एक लंबा इतिहास है. भारत आजादी से अब तक, आपातकाल की अल्पावधि को छोड़ कर, एक लोकतांत्रिक देश है. सैनिक शासन में जहां बोलने और लिखने पर पाबंदी होती है, वहां लोकतंत्र में इसकी पूरी आजादी होती है. फैज ने जब लिखा- ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे/ बोल जबां अब तक तेरी है… बोल कि सच जिंदा है अब तक/ बाेल जो कुछ कहने हैं, कह ले’, तो यह सभी दमनकारी सत्ताओं के खिलाफ था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का प्रमाण है. इसे नष्ट या कमजोर करना लोकतंत्र की हत्या करना, उसे निष्प्राण बना देना है. भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के प्रयत्न जारी हैं. दक्षिणपंथी ताकतें इसके खिलाफ हैं. व्यक्ति, समुदाय, संगठन पर हमले जारी हैं.
लगभग तीन महीने पहले रोमिला थापर, एजी नूरानी और सदानंद मेनन के तीन निबंधों की एक पुस्तक ‘ऑन नेशनलिज्म’ (अलेफ स्पाॅटलाइट, तीन जुलाई, 2016) प्रकाशित हुई. रोमिला थापर ने ‘राष्ट्रवाद’ पर विचार किया. उन्होंने राष्ट्रवाद को ‘नारे लगाने’, ‘झंडा लहराने’ और ‘भारत माता की जय’ बोलने में ही सीमित नहीं किया. उन्होंने धर्मनिरपेक्ष उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद और धार्मिक-सांप्रदायिक राष्ट्रवाद में अंतर किया. ‘देश की जरूरतों को पूरा करने की बड़ी प्रतिबद्धता’ को ही ‘राष्ट्रवाद’ कहा.
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद विरोधी होता है, जबकि धार्मिक राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद विरोधी नहीं होता है. उसके वैमनस्य का निशाना सत्ता के प्रतियोगी होते हैं. पुस्तक में भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म प्रकृति, व्यवहार और भविष्य के सवालों पर विचार किया गया है. इतिहासकार के रूप में रोमिला थापर और एजी नूरानी का योगदान सर्वविदित है. सदानंद मेनन प्रमुख कला संपादक, फोटाेग्राफर, संस्कृति शिक्षक और रंगमंच, प्रकाश डिजाइनर हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख पत्र ‘ऑर्गनाइजर’ रोमिला थापर पर हमले कर रहा है.
रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के बयान से सबकी सहमति जरूरी नहीं है. उन्होंने पाकिस्तान में जाने को नरक में जाना कहा. प्रसिद्ध कन्नड़ अभिनेत्री और पूर्व कांग्रेस सांसद राम्या (दिव्या स्पंदन) ने इससे असहमति प्रकट कर पाकिस्तान को नरक नहीं माना. पाकिस्तान पर की गयी दोनों टिप्पणियां एक-दूसरे की विरोधी हैं. राम्या के खिलाफ एडवोकेट के विट्ठल गौड़ा ने शिकायत की है. उन्होंने इसे ‘लोगों की भावनाओं को भड़काने’ से जोड़ा है और ‘राष्ट्रद्रोह’ का मुकदमा चलाने की मांग की है. भारत की छवि ऐसे आरोपों-कारनामों से कितनी प्रभावित-विकृत होती है, इसका अनुमान ऐसी शक्तियों को नहीं है.
पाकिस्तान के ‘द डान’ और ‘डेली पाकिस्तान’ ने ही नहीं, कई विदेशी, अखबारों में भी ये समाचार प्रकाशित हुए हैं. क्या इक्कीसवीं सदी के भारत में तर्क-युक्ति, विवेक-बुद्धि के लिए, सामाजिक समरसता और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए कोई जगह नहीं बची है? पाक-यात्रा किस तर्क से नरक-यात्रा है? अटलजी और मोदीजी ने यह यात्रा क्यों की? क्या आडवाणी का जन्म नरक में हुआ था? स्वर्ग-नरक की धारणा हमारे बुद्धि-विवेक के परे है. यह धारणा हमारे धार्मिक संस्कारों से जुड़ी है. अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगाना, असहमति के स्वरों को दबाना-कुचलना भारतीय संविधान और लोकतंत्र के विरुद्ध है. क्या भारत में संविधान और लोकतंत्र विरोधी शक्तियां प्रमुख हो गयी हैं? हो रही हैं?
भौगोलिक सीमा की रक्षा करनेवाली सरकारें क्या वैचारिक सीमा भी निर्धारित करेंगी? अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगानेवाली शक्तियों को नरेंद्र दाभोलकर (पद्मश्री नरेंद्र अच्युत दाभोलकर के पुत्र) ने अभी अपने एक लेख ‘द फ्रीडम फ्रॉम अनरीजन’ (इंडियन एक्सप्रेस, 24 अगस्त, 2016) में आतंकी हमलावरों की श्रेणी में रखा है और आतंकी हमलों की तरह इसे गंभीरता से देखने-समझने की बात कही है.
जमीन पर, मकान पर कब्जा करने के समाचारों से हम सभी परिचित हैं, पर दिमाग को कब्जाने, अपने अधीन करने के समाचार मीडिया में नहीं आते. सरकार बार-बार जिस आर्थिक संवृद्धि की बात करती है, वह अशांत-हिंसक वातावरण में नहीं आ सकती. भगत सिंह ने दशकों पहले यह कहा था कि व्यक्ति को मारने से विचार कभी नहीं मरते.
कल 30 अगस्त, 2016 को मालेशाप्पा मादीवलप्पा कलबुर्गी (28 नवंबर, 1938- 30 अगस्त, 2015) की पुण्यतिथि पर चार हजार से अधिक व्यक्ति धारवाड़ में उनके आवास से सुबह साढ़े आठ बजे से मूक-यात्रा में, पांच सौ से अधिक व्यक्ति ग्यारह बजे से तीन बजे तक की पब्लिक मीटिंग में शरीक होंगे. देश के विविध हिस्सों से प्रतिष्ठित लेखकों, पत्रकारों, संस्कृतिकर्मियों, सक्रियतावादियों, इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों, कलाकारों, कवियों की वहां एकत्र उपस्थिति हत्यारों को पकड़ने, त्वरित जांच करने के साथ ही ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के लिए भी है.
‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे.’