17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

सीताराम चरन रति मोरे..

।।डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।। (वरिष्ठ साहित्यकार) बीते 27 जनवरी की रात मेरे लिए ऐतिहासिक रात थी, जब मुङो मुजफ्फरनगर के वेदपाठी भवन में आचार्य सीताराम चतुर्वेदी जी के 108वें जन्मदिवस पर अखिल भारतीय विक्रम परिषद, काशी की ओर से सातवां ‘सृजन मनीषी’ सम्मान दिया गया. इससे पूर्व यह सम्मान कवि नीरज, नृत्यांगना उमा शर्मा, फिल्मकार शरद […]

।।डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)

बीते 27 जनवरी की रात मेरे लिए ऐतिहासिक रात थी, जब मुङो मुजफ्फरनगर के वेदपाठी भवन में आचार्य सीताराम चतुर्वेदी जी के 108वें जन्मदिवस पर अखिल भारतीय विक्रम परिषद, काशी की ओर से सातवां ‘सृजन मनीषी’ सम्मान दिया गया. इससे पूर्व यह सम्मान कवि नीरज, नृत्यांगना उमा शर्मा, फिल्मकार शरद दत्त जैसी विभूतियां पा चुकी हैं. इसकी स्थापना महामना मदन मोहन मालवीय जी ने विक्रम संवत की द्विसहस्नब्दि के उपलक्ष्य में की थी. इसका उद्देश्य था संस्कृत साहित्य और धर्म की अमूल्य कृतियों को लागत मूल्य पर सदस्य बना कर वितरित की जाएं.

परिषद के अध्यक्ष के रूप में आचार्य चतुर्वेदी ने इसका निर्वाह किया और अनेक ग्रंथ जिज्ञासु पाठकों को न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध कराया. इस वेदपाठी भवन को देश के दो महापुरुषों के सान्निध्य का गौरव प्राप्त है- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी और उनके अनुज श्रीनारायण स्वामी. अपनी आध्यात्मिक तपश्चर्या और जीवन-शैली से स्वामी जी ने ही वेदपाठी भवन को लोक-आस्था का केंद्र बना दिया था. वे बचपन में ही घर से भाग निकले थे और वर्षो कहीं गुप्त साधना कर इस पैत्रिक भवन में लौटे. अपनी सिद्धावस्था में वे समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त हो गये थे. यहां तक कि वे बड़े भाई (आचार्य जी) को ‘पंडित’ और भाभी को ‘बिटिया’ बुलाते थे. चतुर्वेदी जी का नाम काशी के अग्रगण्य आचार्यो में लिया जाता है, मगर जीवन के अंतिम चरण में अपने छोटे भाई स्वामी जी के निधन के बाद, उन्होंने क्षेत्र-संन्यास लेकर ‘स्वामी स्वात्माराम’ बन कर परम बैरागी की तरह यहीं एकांतवास किया और भीष्म पितामह का अनुसरण करते हुए उनकी निर्वाण-तिथि माघ शुक्ल अष्टमी (17 फरवरी, 2005) को व्रत लेकर मृत्यु को वरण किया था. बाद में उनका दाह संस्कार काशी के मणिकर्णिका घाट पर हुआ.

सम्मान समारोह लौटते हुए रास्ते भर आचार्य जी की बातें, उनका वैदुष्य और उनका अजस्र स्नेह याद आता रहा. बच्चन जी की भांति मेरे कवि को भी सही मार्ग दिखाने में उनका बड़ा हाथ था. बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा में उनकी विद्वत्ता को बड़े श्रद्धाभाव से स्मरण किया है. पृथ्वीराज कपूर उन्हें अपना कला-गुरु मान कर चरण-स्पर्श करते थे. आचार्य जी के नाटक पृथ्वी थिएटर में मंचित होते थे, जिसे स्वर देनेवालों में लता मंगेशकर भी होती थीं. उन्होंने भरत मुनि के बाद नाटय़शास्त्र को अभिनव रूप दिया, जिससे उन्हें ‘अभिनव भरत’ की उपाधि दी गयी. उन्होंने नाटकों में अभिनय किया, दर्जनों नाटक लिखे और उनका निर्देशन भी किया. पहला नाटक ‘नारद मोह’ आठवीं कक्षा में लिखा था! वे तीन घंटे का नाटक तीन घंटे में लिख लेते थे! संगीत की राग-रागिनियों के मर्मज्ञ तो थे ही, शास्त्रीय गायन और नृत्य में भी सिद्धहस्त थे. काशी के चित्र सिनेमा हाल के मंच पर उनके द्वारा प्रस्तुत तांडव नृत्य को पुराने लोग आज भी याद करते हैं.

1969 की वह जुलाई की शाम, जब काशी के महाराष्ट्र समाज द्वारा आयोजित गणोशोत्सव की कविगोष्ठी में पहली बार मैने सार्वजनिक रूप से काव्यपाठ किया था और जिसके अध्यक्ष पद से आचार्य जी ने मुङो आशीर्वाद देते हुए एक प्रतिबंध लगाया था कि मैं बंबई के फिल्म जगत में भाग कर न जाऊं. उनको दिया हुआ वचन ही था कि गीतकार भरत व्यास के लाख प्रलोभनों के बावजूद मैंने बंबई की ओर रुख नहीं किया.

आचार्य जी दूर से ही पहचान लिये जाते थे. खादी की सफेद धोती, सफेद कुर्ता, सफेद बंडी, कंधे पर धारीदार अंगवस्त्र, सिर पर सफेद गांधी टोपी, सांवले रंग का कद्दावर कसरती शरीर, चंदन चर्चित भाल, गहरी आंखें, हाथ में छड़ी- यही उनका बाना था. जो भी उनके घर पर आता था, उन्हें बिना किसी पुस्तक की सहायता के एक साथ चार-चार सहायकों को लिखवाते देख कर चकित हो जाता था. निधन से पहले उनका पूरा शरीर अशक्त हो चला था, मगर इसके बावजूद वे शिष्यों को बोल कर वेदांगों का भाष्य लिखवा रहे थे.

आचार्य जी का पूरा जीवन यायावर ऋषियों का जीवन रहा. जन्म काशी के छोटी पियरी मुहल्ले में 27 जनवरी, 1907 को हुआ था. पिता पंडित भीमसेन वेदपाठी श्रौत-स्मार्त कर्मकांड, वेद और यज्ञों के अप्रतिम विद्वान थे. वे 1907 में एक मंदिर की प्रतिष्ठा करने मुजफ्फरनगर गये और वहां के श्रद्धालुओं ने उन्हें वापस जाने ही नहीं दिया. आचार्य जी भी वहीं आकर पढ़ने लगे. 1926 में आगे पढ़ने काशी आये और महामना मालवीय जी के संपर्क में आकर उनका विश्वासपात्र बन गये और उनकी प्रेरणा से ‘सनातन धर्म’ पत्रिका निकाली. उन दिनों प्रतिवर्ष एमए करने की सुविधा थी. इसलिए हिंदी, संस्कृत, प्राचीन इतिहास और संस्कृति एवं पालि-एक के बाद एक में एमए किया. एक जर्मन विद्वान को संस्कृत सिखा कर उससे जर्मन सीखी, सारनाथ के एक चीनी बौद्ध को संस्कृत सिखा कर चीनी और एक जापानी को हिंदी पढ़ा कर जापानी सीखी. इसी तरह साथियों से गुजराती, मराठी, बंगला और प्रिंसिपल मलकानी से सिंधी व प्रो मलवनी से ग्रीक भाषा सीख ली. उन्होंने संगीत, मृदंग, तबला, इसराज बजाना सीखा और हारमोनियम तो उन्होंने खेल-खेल में ही सीख लिया. भाषा और संगीत पर आधिपत्य के कारण उन्होंने एक दिन में ही ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर’ गीत लिख संगीतबद्ध किया था.

पंडित जी विभिन्न शिक्षा-संस्थानों के प्राचार्य पद पर रहे. बलिया, कलकत्ता, बंबई प्रवास के दिनों में प्राचार्य के रूप में स्थापित उनका लौह अनुशासन, विशद ज्ञान और सरस ढंग से विषयों को पढ़ाने का कौशल शिक्षा जगत के लिए मानदंड बना. गांधी जी के कहने पर उन्होंने दक्षिण भारत में चार-पांच वर्षो तक घर-घर जाकर अपनी लालटेन, पुस्तक और चटाई ले जाकर लगभग एक हजार परिवारों को हिंदी सिखा दी.

आचार्य जी ने 250 से अधिक गौरव ग्रंथों का लेखन/संपादन किया और टीकाएं लिखीं. उनकी कलम भी अजीब थी-काफी लंबी और मोटी! हिंदी जगत में अब उन जैसे विराट रचनाकार के मूल्यांकन का सामथ्र्य भी नहीं रह गया है, वरना उन पर शोध होते, डाक टिकट निकलते और परिसंवाद होते. काशी में ठलुआ क्लब के गणपति के रूप में उनके अलग ठाठ थे. दीक्षांत समारोहों में जिन्होंने उनकी अद्भुत वक्तृता सुनी है, वे उनके विस्तृत और गहन अध्ययन और मेघ की तरह गंभीर वाणी को कभी भूल नहीं पायेंगे. जब भी मैं वेदपाठी भवन गया, उन्होंने पूरे आह्लाद से स्वागत किया और बिना भोजन कराये और अपनी बहुमूल्य पुस्तकों का प्रसाद दिये बिना जाने नहीं दिया. उस महान विभूति के नाम पर उनके पुत्र धर्मशील जी और रतन गुरु की उपस्थिति में यह सम्मान पाकर सचमुच मैं अभिभूत हूं और तुलसी के शब्दों में अभीप्सा करता हूं: ‘सीताराम चरन रति मोरे. अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरे.’

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें