छड़ी मास्टरों का जलवा था

वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार हमें वो गुजरा जमाना याद है, जब शिक्षक की प्राथमिकता देश को अच्छा नागरिक और बेहतर शैक्षिक माहौल देना था. ट्यूशन व्यवस्था नहीं थी. शिक्षक का एकमात्र सिद्धांत था, छात्र को इनसान बनाना. फोकस कुशाग्र छात्रों पर नहीं, अपितु मंदबुद्धि छात्रों पर था. कभी एक्स्ट्रा क्लास लेकर तो कभी उनके माता-पिता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 5, 2016 5:42 AM

वीर विनोद छाबड़ा

व्यंग्यकार

हमें वो गुजरा जमाना याद है, जब शिक्षक की प्राथमिकता देश को अच्छा नागरिक और बेहतर शैक्षिक माहौल देना था. ट्यूशन व्यवस्था नहीं थी. शिक्षक का एकमात्र सिद्धांत था, छात्र को इनसान बनाना. फोकस कुशाग्र छात्रों पर नहीं, अपितु मंदबुद्धि छात्रों पर था. कभी एक्स्ट्रा क्लास लेकर तो कभी उनके माता-पिता को परामर्श देकर. हमने भी ऐसी अनेक एक्स्ट्रा क्लासें अटेंड की थीं. शिक्षकों के तरकश में ‘बैले’ छात्रों को सुधारने का तरीका था- समझावन लाल यानी छड़ी. यों छड़ी वाले मास्टरों का जबरदस्त जलवा था. बिगड़ैल छात्र भी खौफजदा रहते थे. तब मां-बाप भी बच्चे का दाखिला ऐसे स्कूल में कराना पसंद करते थे, जहां छड़ी मास्टरों की भरमार हो. बेंच पर खड़ा करना या मुर्गा बनाना तो आम बात थी.

हमें याद आती है साठ के दशक की इंटर बोर्ड की परीक्षा. परीक्षा प्रारंभ होने से पहले फतवा जारी हुआ कि जिस-जिस की जेब में नकल की सामग्री हो पांच मिनट में बाहर कर दे, अन्यथा रेस्टीकेशन पक्का. दो छात्रों को छोड़ पूरी क्लास खाली हो गयी. हम उन दो में नहीं थे.

हमें प्राइमरी से लेकर ट्रिपल एमए तक के लगभग सभी गुरुजन के नाम, सूरतें व आदतें याद हैं. एक थे जीडी बाबू. हिसाब और अंगरेजी पढ़ाते थे. छोटा कद, दुबला जिस्म और सांवला रंग. मुंह पर हल्के-हल्के चेचक के दाग. सफेद कमीज के साथ काली या भूरी पैंट. हाथ में छड़ी.

यही उनकी पहचान थी. जिस दिन पैंट भूरी हुई समझो छड़ी शांत रहती. लेकिन, जिस दिन काली पैंट दिखी, तो सुताई दिवस हो गया समझो. उनकी छड़ी के शिकार हम भी रहे. तीन बार की सुटाई तो आज भी याद है. एक बार क्लास में नवाब पटौदी के दिल्ली में टेस्ट में डबल सेंचुरी ठोंकने पर जश्न मनाने पर. दूसरी बार स्कूल बंक करके सिनेमा देखते पकड़े गये. तीसरी दफा काॅलेज के पिछवाड़े पतली गली में सिगरेट फूंकते हुए पकड़े गये. छड़ी टूट गयी तो तमाचे मारे. पीटने के बाद पुचकारते भी थे- तुम लोगों को सुधारने के लिए यह सब करता हूं. बाप की खून-पसीने की कमाई बरबाद मत करो.

एक थे गन्नू बाबू. हाइ स्कूल में इतिहास पढ़ाते थे. दुबली-पतली क्षीण काया और छोटा कद. निहायत ही मृदुभाषी व शरीफ. मैथ व साइंस पढ़ानेवाले उनके साथी मजाक करते थे – ऐसी कद काठी और स्वभाव का आदमी हिस्ट्री ही पढ़ा सकता है. एक बार जोर का आंधी-तूफान आया और साथ में मूसलाधार जोरदार बारिश हुई. छात्रों को मजाक सूझी. जरा देखो गन्नू बाबू उड़ कर बह तो नहीं गये. लेकिन, गन्नू बाबू छात्रों के पीछे ही खड़े थे. छोटे कद के कारण कोई उन्हें देख नहीं पाया. अरे, तुम जैसे बड़े-बड़े बहादुर बेटों के होते हुए भला मुझे कभी कुछ हो सकता है. इसके साथ हो वो जोर से हंसे. छात्रगण बहुत शर्मिंदा हुए थे.

एक और मजेदार शिक्षक थे. हिंदी पढ़ाते थे. आराम से कुरसी पर पसर जाते. किसी भी छात्र को खड़ा कर देते. पढ़ो बच्चा तुलसीदास को. पृष्ठ संख्या… हर चौपाई के बाद अर्थ बताते चलते. जहां समझ में न आये, झेंप जाते. बहुत अच्छा कहे हैं तुलसीदास. बच्चा आगे बढ़ो.

आज का दौर पहले के दौर से बिल्कुल उलट है. सोच बदल गयी है. सामाजिक मूल्य भी बदले हैं. निजी शैक्षिक कोचिंग संस्थानों का बोलबाला है. सब चमचमाते सात सितारा बाजार हैं.

जहां गुरुजन से लेकर मेधावी छात्रों तक की बढ़िया पैकेजिंग करके भरपूर मार्केटिंग हो रही है. कुछ भी हो, अपने समस्त श्रद्धेय गुरुजनों को याद करते हुए हम आज भी संत कबीर के इस दोहे के कायल हैं- गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागे पायं, बलिहारी गुरु आप हैं जो गोविंद दियो मिलाये.

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