भारत का अतियथार्थवादी तेवर

पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार अपनी ताबड़तोड़ विदेश यात्राअों के कारण प्रधानमंत्री मोदी चर्चित ही नहीं विवादास्पद भी रहे हैं. कुछ आलोचकों को यह लग सकता है कि वह आंतरिक राजनीति की चुनौतियों से नजर बचा कर राजनय को अनावश्यक तूल दे रहे हैं- समय जाया कर रहे हैं. अल्पसंख्यक समुदाय का असंतोष हो, कश्मीर घाटी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 5, 2016 5:43 AM
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
अपनी ताबड़तोड़ विदेश यात्राअों के कारण प्रधानमंत्री मोदी चर्चित ही नहीं विवादास्पद भी रहे हैं. कुछ आलोचकों को यह लग सकता है कि वह आंतरिक राजनीति की चुनौतियों से नजर बचा कर राजनय को अनावश्यक तूल दे रहे हैं- समय जाया कर रहे हैं.
अल्पसंख्यक समुदाय का असंतोष हो, कश्मीर घाटी में सुलगता आक्रोश या दलित उत्पीड़न के साथ-साथ निरंकुश समर्थकों के भड़काऊ बयानों के कारण विकास के मुद्दे से ध्यान बंटना, ये मुद्दे इस समय विदेश नीति से भी अधिक संवेदनशील समझे जा रहे हैं. दूसरी ओर महंगाई पर काबू पाने की समस्या अब भी अपनी जगह बरकरार है.
मेरा मानना है कि मोदी का निरंतर यही प्रयास रहा है कि भाजपाई या आरएसएस के अन्य नेता जो भी बयानबाजी करें, वह अपनी छवि समावेशी विकासोन्मुख दलगत पक्षधरता से ऊपर उठ चुके अंतरराष्ट्रीय पहचान वाले राष्ट्रीय नेता की ही पेश करना चाहते हैं. इसमें भी दो राय नहीं कि इस व्यक्ति छवि का लाभ अंततः भारत को होता है. तब भी तटस्थ भाव से जी-20 शिखर सम्मेलन के बारे में सोचने-विचारने की जरूरत है.
जी-20 की बैठकों के बारे में एक बड़ी गलतफहमी से छुटकारा पाने की जरूरत है. इसमें भाग लेनेवाले सभी सदस्यों की हैसियत बराबर नहीं होती. इसमें जो महाशक्तियां या पारंपरिक रूप से ‘बड़ी’ समझी जानेवाली शक्तियां संस्थापक वाले तेवर अपनाये रहती हैं, वही इस ‘क्लब’ का संचालन करती हैं- एजेंडा तय करती हैं. जी-5 को ही आज भी सबसे महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए. इसी जमावड़े को क्रमशः जी-5+1 अौर जी-8 में फैलाया जाता रहा है. जाहिर है कि भारत के लिए किसी भी ऐसे मंच की सदस्यता को मंजूरी देना उस पर कोई एहसान करना नहीं है.
आबादी हो या आर्थिक क्षमता, बाजार का आकार वगैरह इनके आधार पर उसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. पर, यह सोचना नादानी ही कहा जा सकता है कि भारत की राय-रजामंदी या असहमति को ‘बड़े लोग’ प्राथमिकता देंगे. इस मंच का गठन इसलिए ही किया गया है कि यहां के संवाद-परामर्श के आधार पर अहम सार्वभौमिक मुद्दों पर सहमति बनायी जा सके. कमोबेश यही तर्कसंगति शंघाई सहकार संगठन की है.
मोदी के लिए इस बार के जी-20 सम्मेलन में भाग लेना राजनयिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समझा जा सकता है कि अमेरिका के साथ सामरिक सहकार वाले समझौते के बाद यह संदेश दुनिया को दिया जा सके कि अब हमारे अौर अमेरिका के विश्वदर्शन में मतैक्य अौर बढ़ गया है.
चीन के साथ जो मनमुटाव साउथ चाइना सी अौर दक्षिण एशिया में उसके द्वार पाकिस्तान को समर्थन देने से बढ़ा है, उसके संदर्भ में भी यह मंच हमारे लिए उपयोगी समझा जाता रहा है.
मोदी ने उपद्रवग्रस्त बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के हनन के प्रति संवेदनशीलता मुखर करके एक बड़ा दावं लगाया है. यह जोखिम उठाया है कि अमेरिका अौर चीन जम्मू-कश्मीर में भारत को असमंजस में डालने के लिए उद्यत हो सकते हैं. यह पहल बिल्कुल अप्रत्याशित थी. जी-20 के सिलसिले में चीन जाने के पहले मोदी ने वियतनाम का दौरा किया अौर सागर गर्भ में तेल-गैस के भंडार के शोध-दोहन के लिए सहकार की परियोजनाअों को पुनः गतिशील बनाने का प्रयास किया. चीन के अड़ंगे डालने से इसमें गतिरोध आ गया था.
मजेदार बात यह है कि स्वदेश लौट कर मोदी अविलंब फिर से लाअोस के दौरे पर निकलेंगे. उनकी कोशिश यह है कि जब तक चीन एक पहल पर प्रतिक्रिया देगा, मोदी दूसरा कदम ले चुके होंगे. यह जगजाहिर है कि दक्षिण पूर्व एशिया दो स्पष्ट भागों में बंटा है- भारतीय (हिंदू, बौद्ध, सूफी इसलामी संस्कृति से प्रभावित) अौर सदियों से चीन की छाया से आतंकित तथा नस्ली रिश्तेदारी से उनके समान दिखनेवाला. म्यांमार, लाअोस, थाइलैंड, कंबोडिया, मलयेशिया तथा इंडोनेशिया भारतीय प्रभावक्षेत्र के देश हैं. वियतनाम को अधिकतर चीन के करीब (साम्यवादी विचारधारा के कारण) माना जाता रहा है.
संक्षेप में, इस बार जी-20 वाले मंच का उपयोग भारत अपने राष्ट्रहित को अतियथार्थवादी तेवर के साथ मुखर करने के लिए उद्यत जान पड़ता है. यह देखने लायक होगा कि इसमें उसे कितनी कामयाबी मिलती है.
अपनी हाल की भारत-यात्रा के दौरान जॉन कैरी ने यह ‘लॉलीपॉप’ हमारे सामने झुलाया है कि इस अवसर पर वह चीन को यह समझाने की कोशिश करेंगे कि भारत को यथाशीघ्र एनएसजी गुट का सदस्य बना लिया जाये. उनको आशा है कि साल के अंत तक अमेरिका इसमें सफल हो जायेगा.
हमारी राय में यह महज खुशफहमी है. चीन के साथ भारत की प्रतिद्वंद्विता बुनियादी है- एशिया में ही नहीं अन्यत्र भी. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर हो या साउथ चाइना सी भारत के साथ उसके हितों का टकराव अनिवार्य है. ऊर्जा सुरक्षा हो या खाद्यान्न सुरक्षा, पर्यावरण में कार्बन प्रसारण हो अथवा परमाण्विक अप्रसार, इन सभी ‘सार्वभौमिक मुद्दों’ पर हमारे साथ उनका मतभेद आसानी से दूर होनेवाला नहीं.

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