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ड्रग मार्केट में कंपटीशन बढ़ाइए

डॉ भरत झुनझुनवाला अर्थशास्त्री यूपीए सरकार द्वारा लगभग 400 दवाओं के दाम तय कर दिये गये थे. वर्तमान एनडीए सरकार ने 450 और दवाओं के दाम निर्धारित कर दिये हैं. 350 और दवाओं के दाम निर्धारित करने की प्रक्रिया चल रही है. सरकार का यह कदम सही दिशा में है. दवाओं के बाजार के दो […]

डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
यूपीए सरकार द्वारा लगभग 400 दवाओं के दाम तय कर दिये गये थे. वर्तमान एनडीए सरकार ने 450 और दवाओं के दाम निर्धारित कर दिये हैं. 350 और दवाओं के दाम निर्धारित करने की प्रक्रिया चल रही है. सरकार का यह कदम सही दिशा में है.
दवाओं के बाजार के दो हिस्से हैं. पहला हिस्सा जेनेरिक दवाओं का है. अकसर दवाओं में एक केमिकल होता है.
दवा को इस केमिकल के नाम से बेचा जा सकता है, लेकिन कई कंपनियां उस दवा को विशेष नाम से बेचती हैं. जैसे बुखार उतरने की दवा का मूल नाम पैरासिटामोल है. यह बाजार में पैरासिटामोल के नाम से भी उपलब्ध है, लेकिन दूसरी कंपनियां इसी दवा को क्रोसिन अथवा सैरीडान के नाम से बेचती हैं. जब किसी दवा को विशेष कंपनी द्वारा दिये गये नाम से बेचा जाता है, तो उसे ‘ब्रांडेड’ कहा जाता है. इन दवाओं को बनाने-बेचने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है.
दवा कंपनियां अकसर इन दवाओं को ऊंचे दाम पर बेचती हैं. इनके द्वारा विज्ञापन किये जाते हैं. सेल्स रिप्रेजेंटेटिव तैनात किये जाते हैं. डाॅक्टरों को गिफ्ट एवं कमीशन दिये जाते हैं.
जैसे किसी दवा को एक कंपनी 10 रुपये में बेच रही है. उसी दवा को दूसरी कंपनी अपना ब्रांड लगा कर 50 रुपये में बेचती है. इस 50 रुपये में से वह 10 रुपये का कमीशन डाॅक्टरों को दे देती है. डॉक्टर मरीजों को 50 रुपये की महंगी दवा लिखते हैं. मरीजों को इस बात का भान ही नहीं होता कि यही दवा कम दाम में उपलब्ध है.
इन दवाओं के दाम पर नियंत्रण करने का अधिकार सरकार के पास ड्रग प्राइस कंट्रोल आॅर्डर के अंतर्गत है. सरकार की मंशा है कि अधिक मात्रा में दवाओं को मरीजों को उचित दाम पर उपलब्ध कराया जाये. लेकिन, प्रशासनिक स्तर पर मूल्य निर्धारण में कई समस्याएं हैं. पहली समस्या भ्रष्टाचार की है. ड्रग इंस्पेक्टर को घूस खाने के अवसर खुल जाते हैं. दूसरी समस्या है कि मूल्य को लेकर विवाद बना रहता है. ड्रग कंपनियों की शिकायत रहती है कि मूल्य नीचे निर्धारित किये गये हैं, जबकि जनता की शिकायत रहती है कि ये ऊंचे हैं. तीसरी समस्या है कि लगभग 900 दवाओं को बनानेवाली सैकड़ों कंपनियों पर निगरानी रख पाना बहुत दुष्कर कार्य है. चौथी समस्या है कि दवा की गुणवत्ता की जांच करना कठिन होता है.
सरकार द्वारा दाम कम निर्धारित करने पर कंपनी द्वारा दवा की गुणवत्ता को गिराया जा सकता है. ऐसे में दवाओं के मूल्य न्यून बने रहें, इसके लिए सरकार को कई दूसरे कदम भी उठाने चाहिए.
पहला कदम है कि सामान्य दवाओं पर ब्रांड लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया जाये. साथ ही डाॅक्टरों पर प्रतिबंध लगाया जाये कि वे जेनेरिक दवाओं के पर्चे लिखें व निर्माता कंपनी का नाम पर्चे पर न लिखें. ड्रग कंपनियों एवं डाॅक्टरों के अपवित्र गंठबंधन द्वारा मरीज को अनायास महंगी दवा खरीदने की मजबूरी नहीं रहेगी. अध्ययन बताते हैं कि अकसर गोलियों में बतायी गयी मात्रा से कम दवा होती है. सरकार को दवाओं का परीक्षण कराना चाहिए. दुकानदारों को निर्देश दिया जाये कि उस परीक्षण रिपोर्ट को दुकान में टांगें. तब खरीददार अपने विवेक के अनुसार दवा खरीद सकेगा. इन कदमों का प्रभाव दीर्घकालिक होगा. भ्रष्टाचार के अवसर भी नहीं खुलेंगे.
दवाओं का दूसरा हिस्सा पेटेंटीकृत दवाओं का है. ड्रग कंपनियों द्वारा नयी दवाओं का आविष्कार किया जाता है. इन दवाओं पर कंपनी द्वारा पेटेंट हासिल किया जाता है. पेटेंट कानून के तहत इन दवाओं को बनाने एवं बेचने का एकाधिकार पेटेंटधारक कंपनी के पास रहता है. पेटेंटधारक कंपनी द्वारा 20 वर्षों तक दवाओं को मनचाही कीमतों पर बेचा जाता है. ड्रग कंपनियों का तर्क है कि दवा के अाविष्कार में उनके द्वारा भारी निवेश किया गया है.
इस निवेश को वसूलने के लिए उन्हें दवा के ऊंचे दाम रखना अनिवार्य है. दवाओं को ऊंचे दाम पर बेच कर कमाये गये लाभांश से ही वे दवा के क्षेत्र में रिसर्च में निवेश कर सकेंगे और नयी दवा का आविष्कार कर सकेंगे. ड्रग कंपनियों की यह दलील सही भी है.
बावजूद इसके, पेटेंटीकृत दवाओं के दाम पर भी कुछ नियंत्रण जरूरी है. कारण कि ड्रग कंपनियों द्वारा कमाये गये लाभ का एक अंश ही भविष्य के रिसर्च में निवेश किया जाता है. शेष लाभ मालिकों अथवा शेयर धारकों को होता है. इन दवाओं के ऊंचे दाम से मरीज भी सीधे प्रभावित होते हैं. यहां प्रश्न संतुलन का है. एक ओर पूर्व में किये गये निवेश की वसूली तथा भविष्य में किया जानेवाला निवेश है. दूसरी ओर मरीज का हित है. दोनों तर्क मजबूत हैं. किसी वैज्ञानिक कसौटी पर दाम तय कर पाना कठिन है. यह निर्णय राजनीतिक है.
सरकार को ही इस संतुलन को स्थापित करना चाहिए. केंद्र सरकार ने पेटेंटीकृत दवा के दाम निर्धारित करने को 2007 में एक कमेटी बनायी थी. इस कमेटी ने पांच वर्षों के बाद अपनी रपट प्रस्तुत की. इस रपट पर निर्णय लेने के लिए दूसरी कमेटी विचार कर रही है. सरकार को चाहिए कि ऐसी ढिलाई पर सख्त कदम उठाये और पेटेंटीकृत दवाओं के मूल्य निर्धारण की पाॅलिसी शीघ्र बना कर जनता को राहत दे.
चीन में मोदी
दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जारी खींचतान की पृष्ठभूमि में हांगझोऊ में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन कई मायनों में महत्वपूर्ण है. इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय वार्ता में बेहतर संबंधों के लिए एक-दूसरे की चिंताओं को ध्यान में रखने की बात कही, वहीं उन्होंने जी-20 के नेताओं से दक्षिण एशिया में आतंक तथा वैश्विक वित्तीय संस्थाओं और समझौतों में सुधार की जरूरत को रेखांकित किया. चीन जाने से पहले मोदी का वियतनाम का दौरा तथा पिछले सप्ताह भारतीय विदेश सचिव द्वारा सामुद्रिक नीति के मुख्य तत्वों का उल्लेख इस बात के संकेत हैं कि भारत किसी भी तरह से चीन के दबाव को स्वीकार करने के तैयार नहीं है. साउथ चाइना सी विवाद के मद्देनजर ये पहलें ठोस कूटनीतिक निर्णय हैं.
बहरहाल, दोनों नेताओं की बातचीत में प्रमुख रणनीतिक तत्वों पर ध्यान केंद्रित करने की बनी सहमति से यह आशा बंधी है कि तनावों के बावजूद भारत और चीन के संबंध सकारात्मक दिशा में बढ़ सकते हैं. इस मौके पर ब्रिक्स समूह के नेताओं की बैठक से भी द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबंधों को नयी ऊर्जा मिली है. अगले महीने गोवा शिखर सम्मेलन में चीन समेत ब्रिक्स के अन्य नेताओं की फिर मुलाकात से इस प्रक्रिया में तेजी आने की संभावना है. अरब में अस्थिरता, आतंक का खतरनाक विस्तार, वैश्विक अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव, अमेरिका और रूस तथा अमेरिका और चीन के तनावपूर्ण संबंध आदि जैसे मसले अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सामने हैं. दुनिया की जीडीपी में जी-20 में शामिल देशों का हिस्सा 85 फीसदी है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के मौजूदा नियमों के कारण उभरती अर्थव्यवस्थाओं को समुचित सहयोग नहीं मिल पाता है.
मोदी ने इस स्थिति को बदलने की मांग कर न सिर्फ ऐसे देशों की शिकायत को स्वर दिया है, बल्कि इससे अविकसित देश भी लाभान्वित हो सकेंगे. उन्होंने कालेधन, कर चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के आरोपियों को पकड़ने में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत पर बल दिया.
पाकिस्तान का नाम लिये बिना प्रधानमंत्री ने आतंक को शह देने की उसकी नीति की घोर आलोचना की और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से कार्रवाई करने को कहा. अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में ऐसे मौके कम ही आते हैं, जब कई मामलों और समस्याओं पर चर्चा का अवसर मिलता है. प्रधानमंत्री मोदी के लिए हांगझोऊ ऐसा ही मौका था, जिसका समुचित उपयोग करते हुए उन्होंने भारत की चिंताओं को सामने रखा तथा यह संदेश भी बखूबी दे दिया कि वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक तंत्र में भारत एक महत्वपूर्ण उपस्थिति है, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती है.
बाढ़ के आगे बेबस
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के नये आंकड़े बताते हैं कि बाढ़ के कारण सन् 1953 से 2012 के बीच हर साल औसतन 2,130 लोगों की मौत हुई है. बाढ़ से होनेवाले नुकसान का यह आंकड़ा केंद्रीय जल आयोग द्वारा बताये गये तथ्यों की तुलना में कहीं ज्यादा विश्वसनीय लगता है. कुछ वर्ष पहले 1953 से 2004 के बीच की अवधि में बाढ़ से हुए नुकसान का आकलन करते हुए केंद्रीय जल आयोग ने बताया था कि प्रतिवर्ष औसतन 1,590 लोगों की जान इस आपदा में जाती है.
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों को ठीक मान कर चलें, तो कहा जा सकता है कि आजादी के बाद के सात दशक में सवा लाख से ज्यादा लोगों की जिंदगी बाढ़ की तबाही की भेंट चढ़ गयी. तकरीबन सवा लाख की संख्या में पशुधन भी इस अवधि में बाढ़ की भेंट चढ़े हैं और बाढ़ से होनेवाले नुकसान की भयावहता के अंदाजे के लिए यह तथ्य भी नोट करना जरूरी है कि छह दशक के सफर में बाढ़ के कारण इस देश ने सालाना औसतन 1,499 करोड़ रुपये मूल्य की फसलों को बरबाद होते देखा है. बेशक बाढ़ हर साल आती है, लेकिन जरूरी नहीं कि बाढ़ आये, तो उसके साथ विनाश-लीला भी चली आये. बाढ़ की विनाश-लीला को बताते ये आंकड़े संकेत करते हैं कि बाढ़ से होनेवाले नुकसान को कम करने के मोर्चे पर अपना देश सोच, योजना और अमल के मोर्चों पर लगातार असफल रहा है.
मिसाल के लिए, बाढ़ पर काबू पाने के लिए लगातार तटबंधों और बड़े बांध बनाने की बात सोची गयी. आज देश में 4,525 छोटे-बड़े बांध हैं, तटबंधों की लंबाई 5,280 किमी से बढ़ कर 15,675 किमी हो गयी है, लेकिन बाढ़ पहले से कहीं ज्यादा भयावहता के साथ आती है. बाढ़ को रोकने का उपाय बाढ़ आने की विशेष वजह में तब्दील हो गया है. विशेषज्ञ बताते हैं कि नदी की तली में जमा होनेवाली गाद की समस्या बड़े बांधों के कारण बढ़ी है. बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में अविवेकी बसाहट से लेकर वनों की कटाई और परंपरागत जलाशयों की बरबादी तक बहुत से कारण बाढ़ की भयावहता में योग देते हैं.
इन पक्षों पर सोचने और कारगर योजना तैयार करने की जगह बाढ़ को लेकर राष्ट्रीय सोच-विचार सिर्फ राहत और बचाव पर केंद्रित रहता है. स्वागतयोग्य है कि बीते माह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बाढ़ पर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की मांग उठायी थी. बाढ़ की विभीषिका से बचना नये सोच और उसके अनुकूल योजना के सहारे ही हो सकता है.

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