डेटागिरी का लोकतंत्र
विनीत कुमार मीडिया विश्लेषक रिलायंस इंडस्ट्रीज ने 4जी मोबाइल सेवा जियो के जरिये भारत को एक नये युग में ले जाने की घोषणा की है. रोमिंग और वॉयस कॉलिंग मुफ्त करके कंपनी चाहती है कि उपभोक्ता-नागरिक इस मोबाइल के साथ पूरे देश से अभिन्न रूप से जुड़ाव महसूस करें. यह एक तरह से धीरूभाई अंबानी […]
विनीत कुमार
मीडिया विश्लेषक
रिलायंस इंडस्ट्रीज ने 4जी मोबाइल सेवा जियो के जरिये भारत को एक नये युग में ले जाने की घोषणा की है. रोमिंग और वॉयस कॉलिंग मुफ्त करके कंपनी चाहती है कि उपभोक्ता-नागरिक इस मोबाइल के साथ पूरे देश से अभिन्न रूप से जुड़ाव महसूस करें. यह एक तरह से धीरूभाई अंबानी के ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ के सपने को आगे बढ़ाते हुए मुकेश अंबानी के दौर की डेटागिरी है.
डेटागिरी का अर्थ है ज्यादा-से-ज्यादा इंटरनेट का, मोबाइल फोन का और 4जी की रफ्तार से मिलनेवाली मीडिया सामग्री का इस्तेमाल. दो राय नहीं कि डेटा पैक सस्ता होने से उपभोक्ता ज्यादा सर्फिंग कर सकेंगे, इंटरनेट की सामग्री के ज्यादा बड़े उपभोक्ता बन सकेंगे और मनोरंजन की दुनिया के ज्यादा करीब होंगे.
यह स्थिति 1970 के दशक के उन तर्कों जैसी है, जो दूरदर्शन और संचार के संसाधनों के प्रसार के दौरान दिये गये थे. भारत सरकार ने अमेरिका के नासा की मदद से जिस साइट (1975-76) कार्यक्रम को इस काम में लगाया, एक साल बाद नतीजे बहुत संतोषजनक नहीं रहे. फिर भी संचार के संसाधनों को विस्तार देने का काम उससे कहीं ज्यादा आक्रामक अंदाज में होता रहा, जबकि इसके जरिये सामाजिक जागरूकता और संवेदनशील समाज के सपने बहुत पीछे छूट गये. इस मामले पर 1982 में गठित पूरनचंद जोशी कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया कि जिसे सूचना क्रांति बता कर विस्तार दिया जा रहा है, वह महज संचार क्रांति है. कमेटी ने कहा कि जब तक सूचना के स्तर पर, सामग्री के स्तर पर, विचार और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के स्तर पर लोगों को मजबूत नहीं किया जाता, संचार क्रांति के विस्तार के बावजूद सामाजिक विकास का एजेंडा पिछड़ता चला जायेगा.
नेहरू युग में सामाजिक विकास का माध्यम के दावे के साथ जिस आकाशवाणी को विस्तार दिया गया, उसकी आलोचना खुद आकाशवाणी के लोगों ने ही की. तीन दशकों तक आकाशवाणी में सेवाएं देनेवाले केशवचंद्र वर्मा ने लिखा- नेहरू के जिस गुलाबी समाजवाद के प्रभाव से घर-घर रेडियो पहुंचाया जा रहा है, सच यह है कि उसके जरिये साइकिल और घड़ी पहुंचाने का काम ज्यादा हो रहा है. तब साइकिल और घड़ी दहेज सामग्री के तौर पर लोकप्रिय थे.
नेहरू, इंदिरा, राजीव गांधी से होते हुए जो संचार क्रांति अब डिजिटल इंडिया के दौर में आगे बढ़ रही है, इसमें एक सवाल बरकरार है कि संचार के विस्तार को सामाजिक विकास के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाना किस हद तक तर्कसंगत है? रेडियो, टीवी, मोबाइल फोन का उपभोक्ता क्या उसी स्तर का जागरूक नागरिक होगा, जिसकी अपेक्षा सेलफोन नेशन से इतर वास्तविक दुनिया में होती है?
वर्ष 2013 में रॉबिन जेफ्री और ऐशा डोरॉन ने जब मोबाइल फोन के जरिये बननेवाले इस सेलफोन नेशन भारत का अध्ययन किया, तो इसके प्रयोग से आम जनजीवन में आयी सहूलियतों के साथ ही उन दुश्वारियों को भी शामिल किया, जो कि दावे से कहीं ज्यादा स्याह हैं. जियो से पहले नोकिया की तो पूरी ब्रांडिंग ही ‘कनेक्टिंग इंडिया’ की पंचलाइन पर टिकी रही है.
लेकिन डेटागिरी की इस शुभेच्छा के बीच मोबाइल फोन एक 360 डिग्री का ऐसा मीडिया प्लेटफॉर्म है, जहां प्रिंट, रेडियो, टीवी और वेबसाइट के खिलाड़ी रहते हैं. इसके विस्तार से बाकी के परंपरागत माध्यमों की सेहत बननी-बिगड़नी शुरू हो गयी है. ऐसे में इस नयी मोबाइल सेवा के जरिये रिलायंस जिस नये भारत का नक्शा बनाने जा रहा है, उसके साथ एक सवाल गहरे स्तर पर जुड़ा है- इस डेटागिरी के जनतंत्र की नागरिकता की क्या-क्या शर्तें होंगी?