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आलोचना राजद्रोह नहीं

कानून में राजद्रोह की परिभाषा दर्ज होने और फैसलों में इसकी व्याख्या के बावजूद सुप्रीम कोर्ट को यदि फिर कहना पड़ा है कि ‘सरकार की आलोचना के लिए किसी पर राजद्रोह के आरोप नहीं लगाये जा सकते’, तो संकेत साफ हैं कि इस कानून का दुरुपयोग होता रहा है. अपनी याचिका में एनजीओ ‘कॉमन कॉज’ […]

कानून में राजद्रोह की परिभाषा दर्ज होने और फैसलों में इसकी व्याख्या के बावजूद सुप्रीम कोर्ट को यदि फिर कहना पड़ा है कि ‘सरकार की आलोचना के लिए किसी पर राजद्रोह के आरोप नहीं लगाये जा सकते’, तो संकेत साफ हैं कि इस कानून का दुरुपयोग होता रहा है.
अपनी याचिका में एनजीओ ‘कॉमन कॉज’ ने कई मामलों का उल्लेख करते हुए कहा था कि सरकारें किसी को डराने या सरकार विरोधी आवाज को दबाने के लिए इस कानून के तहत मामले दर्ज कर रही हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई से भले मना कर दिया हो, पर कहा कि आइपीसी की धारा 124 में राजद्रोह के मुकदमे का आधार बताया गया है और 1962 में ‘केदारनाथ बनाम बिहार राज्य’ मामले के फैसले में इसे स्पष्ट भी किया जा चुका है.
उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि किसी भी नागरिक को सरकार के तौर-तरीकों के बारे में कुछ भी बोलने-लिखने का पूरा अधिकार है और राजद्रोह की धाराएं तभी लगायी जा सकती हैं, जब किसी अभियुक्त ने हिंसा के लिए लोगों को उकसाया हो या जनजीवन को प्रभावित करने की कोशिश की हो. लेकिन, सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस कानून के तहत केवल 2014 में देश में 47 केस दर्ज हुए, जिनमें 58 लोगों की गिरफ्तारी हुई. इनमें से सिर्फ एक व्यक्ति को अब तक दोषी पाया गया है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में भी राजद्रोह के 18 मामले दर्ज हो चुके हैं, जिनमें 19 लोगों को अभियुक्त बनाया गया है. ऐसे ज्यादातर मामलों में आरोप साबित नहीं हो पाते, पर अदालती सुनवाई की लंबी प्रक्रिया से गुजरना अपने-आप में किसी सजा से कम नहीं होता. इस औपनिवेशिक कानून के औचित्य पर संसद तक में चर्चा हो चुकी है. अगस्त, 2012 में राज्यसभा में पेश एक निजी विधेयक में सांसद डी राजा ने कहा था कि स्वतंत्रता सेनानियों के दमन के लिए ब्रिटिश राज द्वारा 1860 में तैयार इस कानून में संशोधन की जरूरत है. इस पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने धारा 124-ए को ‘आतंकवाद, उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसी समस्याओं से निबटने के लिए जरूरी और संविधानसम्मत’ बताया था.
उस वक्त भी सरकार ने साफ किया था कि ‘समुचित दायरे में रह कर सरकार की आलोचना करने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन जब आपत्तिजनक तरीकों का सहारा लिया जाये, तब यह धारा प्रभावी हो सकती है’. तब बहस में भाजपा सहित कई दलों के सांसदों ने सरकार के इस रुख का समर्थन किया था. जाहिर है, सत्ता में बैठी पार्टियों का दायित्वबोध ही देश को इस कानून के दुरुपयोग से बचा सकता है. कहने की जरूरत नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती.

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