कश्मीर का दर्द और सियासत
उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार कश्मीर की मौजूदा स्थिति को लेकर संसद के पिछले सत्र में विपक्ष ने सरकार को जम कर घेरा. दबाव में आकर सरकार ने वहां सांसदों का एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की मांग मंजूर कर ली. वह प्रतिनिधिमंडल कश्मीर के दो दिवसीय दौरे से खाली हाथ लौट आया. राज्य सरकार के नुमाइंदों, कुछ […]
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
कश्मीर की मौजूदा स्थिति को लेकर संसद के पिछले सत्र में विपक्ष ने सरकार को जम कर घेरा. दबाव में आकर सरकार ने वहां सांसदों का एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की मांग मंजूर कर ली. वह प्रतिनिधिमंडल कश्मीर के दो दिवसीय दौरे से खाली हाथ लौट आया. राज्य सरकार के नुमाइंदों, कुछ सरकारी एजेंसियों, कुछ विधायकों के अलावा किसी और ने उनसे बातचीत नहीं की. अपनी विफलता के लिए केंद्र कश्मीरियों को जिम्मेवार ठहरा रहा है.
गृह मंत्री ने कहा कि कश्मीरी अलगाववादी नेताओं का व्यवहार ‘कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत’ के खिलाफ था, जिन्होंने प्रतिनिधिमंडल के कुछ सदस्यों के प्रयास के बावजूद उनसे बातचीत नहीं की. वहां के अलगाववादी नेता दूध के धुले नहीं हैं. उनमें कइयों के ‘पाकिस्तान-कनेक्शन’ जगजाहिर हैं. लेकिन, संवाद न होने के लिए उन अलगाववादी नेताओं को जिम्मेवार ठहराना तर्कसंगत नहीं लगता.
सवाल है कि उनसे बातचीत के लिए केंद्र या राज्य की सरकार ने कब प्रयास किया? क्या उन्हें इस बाबत किसी तरह का आमंत्रण भेजा गया था? इसका एक ही जवाब है- सरकारों के स्तर पर ऐसा कोई आमंत्रण नहीं गया.
फिर जद(यू) या कुछ वाम नेताओं से कश्मीरी नेताओं की चाय-चर्चा से क्या निकलनेवाला था, जिसके लिए वे सैकड़ों कश्मीरी नौजवानों के पैलेट गनों से नष्ट हो चुकी आंखों या छिदे शरीर के दर्द को भुला कर बातें करते! और क्या ऐसी बातचीत को वहां के आम लोग मंजूर करते? क्या यह बेहतर नहीं होता कि यह प्रतिनिधिमंडल राज्य सरकार और सुरक्षा-बल के उच्चाधिकारियों से मिलने के बाद श्रीनगर के अस्पतालों का दौरा करता. वहां भर्ती उन सैकड़ों नौजवानों, जिनके शरीर पैलेट गनों से छिदे हुए हैं, से मिलता. उनके परिजनों से मिल कर अफसोस जताता और कहता, ‘कश्मीर ही नहीं, कश्मीरी भी भारत के अविभाज्य अंग हैं. हमें आपके जख्मों का दर्द है.’ लेकिन, प्रतिनिधिमंडल के अधिकतर सदस्य श्रीनगर स्थित अतिसंरक्षित नेहरू गेस्ट हाउस से बाहर ही नहीं निकले.
कुछेक सदस्य किसी पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के बगैर इधर-उधर मंडराते रहे. जाहिर है, इसमें फोटो खिंचाने के अलावा और कुछ नहीं हासिल होनेवाला था.
1948 से लेकर अब तक, देश के तमाम विद्वानों, समझदार राजनेताओं और विशेषज्ञों ने माना कि कश्मीर की समस्या राजनीतिक है, इसका समाधान भी राजनीतिक स्तर पर ही संभव है. इस बात को अपने अंदाज में कहनेवालों में अब भारतीय सेना की उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा भी शामिल हो चुके हैं. जनरल हुड्डा ने हाल ही में कहा कि ‘कश्मीर की समस्या बुनियादी तौर पर राजनीतिक है, कानून व्यवस्था की नहीं. सभी पक्षों को इसके समाधान की पहल करनी चाहिए.’ सैन्य कमांडर होने के नाते उनके साथ एक ‘प्लस-प्वाइंट’ है कि ‘कटु सत्य’ बोलने के चलते उन्हें कोई ‘देशद्रोही’ नहीं कह सकता!
यह जानते हुए भी कि कश्मीर समस्या राजनीतिक है, हमारी सरकारें उसके राजनीतिक समाधान की कोशिशों से खुद को अक्सर दूर रखती हैं. उन्हें ‘अलोकप्रिय’ होने का डर सताता रहता है. राजनीतिक दलों और मीडिया के बड़े हिस्से ने कश्मीर को लेकर शेष भारत की जनता में भारी अज्ञान फैला रखा है. मौजूदा सरकार को ही देखें. भाजपा और उसके मार्गदर्शक-आरएसएस संविधान के अनुच्छेद 370 को ही खत्म करना चाहते हैं! दूसरी तरफ, कश्मीरी अवाम की नुमाइंदगी का दावा करनेवाली नेशनल काॅन्फ्रेंस और पीडीपी क्रमशः (पहले जैसी) ‘स्वायत्तता’ या ‘स्वशासन’ चाहती हैं. अलगाववादियों का बड़ा हिस्सा आत्मनिर्णय का हक चाहता है. कश्मीर का असल मसला यही है. क्या इनमें किसी भी बिंदु पर मौजूदा सरकार कश्मीरी नेताओं से ठोस संवाद करना चाहेगी?
एनडीए-1 के प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कई चक्र बातचीत चलायी. लेकिन, 2000 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा द्वारा पारित स्वायत्तता के प्रस्ताव को मानने से उन्होंने इनकार किया. संवाद अवरुद्ध हो गया. 2004 में सत्ता में आने पर डॉ मनमोहन सिंह ने फिर से संवाद शुरू किया. इसी क्रम में मनमोहन-मुशर्रफ हवाना-बैठक के बाद समस्या-समाधान के तौर पर चार-सूत्री फाॅर्मूला सामने आया. दोनों नेताओं में सहमति तो बन गयी, लेकिन बाद की परिस्थितियों के चलते मामला फिर ठहर गया. केंद्र की मौजूदा सरकार न तो पाकिस्तान से संवाद के पक्ष में है और न तो अलगाववादियों से. महबूबा की पीडीपी सिर्फ सत्ता-सुख भोग रही है.
हुर्रियत से जुड़े अलगाववादी नेता घाटी में बेमतलब दिख रहे हैं. स्थानीय लोगों के हिंसक या अहिंसक प्रतिरोध की अगुवाई कौन कर रहा है, यह बताना किसी के लिए भी असंभव है. सुरक्षा बलों की बंदूकों और पत्थरबाजी करनेवाली जमातों के बीच जिस तरह की संजीदा आवाज की जरूरत है, वह घाटी में फिलहाल कहीं दिख नहीं रही. ऐसे में कश्मीरियों के बीच विश्वास-बहाली कैसे संभव होगी? कश्मीर का फौरी संकट यही है.