क्या लेखिका बनायी जाती है?

प्रभात रंजन कथाकार मेरे एक सहकर्मी ने तंज करते हुए पूछा- ‘क्या हिंदी में कोई लेखिका है, जो खुद लिखती हो?’ यह प्रसंग हाल में सोशल मीडिया और ब्लॉग जगत में हिंदी की एक वरिष्ठ कवयित्री को लेकर मचा घमासान था. उनके बारे में रूस प्रवासी एक कवि ने यह कह दिया था कि वे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 8, 2016 5:25 AM
प्रभात रंजन
कथाकार
मेरे एक सहकर्मी ने तंज करते हुए पूछा- ‘क्या हिंदी में कोई लेखिका है, जो खुद लिखती हो?’ यह प्रसंग हाल में सोशल मीडिया और ब्लॉग जगत में हिंदी की एक वरिष्ठ कवयित्री को लेकर मचा घमासान था. उनके बारे में रूस प्रवासी एक कवि ने यह कह दिया था कि वे अपने विद्यार्थी जीवन में उन कवयित्री के नाम से कविताएं लिख कर प्रकाशित करवाया करते थे. कहने का अर्थ है कि उन वरिष्ठ कवयित्री की आरंभिक कविताएं उनकी लिखी हुई थीं ही नहीं. यह कोई नई बात नहीं है. समय-समय पर हिंदी की अनेक लेखिकाओं को लेकर ऐसी बातें कही और लिखी भी जाती रही हैं.
हाल में ही रांची के एक वरिष्ठ आलोचक ने हिंदी की एक चर्चित लेखिका के ऊपर यह आरोप लगाया था कि उनका सबसे चर्चित उपन्यास असल में उन्होंने लिखा था. 90 के दशक में अपने-अपने उपन्यासों से चर्चित हुई दो लेखिकाओं के बारे में भी यही कहा-लिखा जाता रहा है कि उनका लेखन असल में उनका लिखा हुआ है ही नहीं. उनके पीछे पुरुष लेखकों की कलम थी. हिंदी के आरंभ से ही लगभग सभी प्रसिद्ध लेखिकाओं के लेखन को लेकर ऐसी बातें कही जाती रही हैं कि असल में उनका लेखन उनका था ही नहीं. किसी-न-किसी पुरुष लेखक-संपादक का नाम उनके पीछे जोड़ा जाता रहा है. बहुत थोड़ी सी लेखिकाओं का नाम अपवादस्वरूप लिया जा सकता है.
यह हिंदी के पुरुषवादी, सामंती सोच का सबसे बड़ा उदाहरण है. हिंदी में स्त्री-विमर्श को आये जमाना हो गया. स्त्रियों के लेखन को लेकर काफी विमर्श हो चुका है, उनके ऊपर किताबें लिखी जा चुकी हैं, विश्वविद्यालयों में उनके लेखन को पढ़ाया जाता है, लेकिन मौका आते ही सामंतवादी ढंग से यह लिख-कह दिया जाता है कि असल में लेखिकाएं खुद लिखती ही नहीं हैं.
वे तो बस होती हैं, कोई-न-कोई पुरुष होता है, जो उनका प्रेमी होता है, उनका शैदाई होता है, जो उनके लिए, उनके नाम से निस्वार्थ भाव से लिखता है. कहने का तात्पर्य यह कि हिंदी में लेखिकाओं का कद बनने ही नहीं दिया जाता है. जिस लेखिका की भी कोई रचना चर्चा में आती है, तो उसका कद घटाने के लिए उसके पीछे के पुरुष लेखक की खोज शुरू हो जाती है.
आश्चर्यजनक बात यह है कि ऐसा कम ही होता है कि किसी चार्चित पुरुष लेखक की रचनाओं के पीछे किसी लेखक की खोज की गयी हो. ऐसा हर बार सिर्फ लेखिकाओं के मामले में ही होता है. इसके पीछे कहीं-न-कहीं यही मानसिकता काम कर रही है कि लेखिकाएं (महिलाएं) कैसे अच्छा लिख सकती हैं?
दरअसल, आज भी संपादन-प्रकाशन की दुनिया में पुरुषों का ही वर्चस्व है. आज भी लेखिकाओं को प्रकाशन के लिए संपादक-प्रकाशक की चिरौरी करनी पड़ती है. कहने का तात्पर्य यह है कि इस क्षेत्र में पूरी तरह से पुरुष वर्चस्व है. इस वजह से भी लेखिकाओं की रचनाओं को इन विवादों-प्रसंगों से अलग हट कर नहीं देखा जाता है.
आज जबकि सोशल मीडिया के दौर में यह देखने में आया है कि लेखिकाएं हर विधा में लिख रही हैं, और उल्लेखनीय लिख रही हैं. हाल के वर्षों में कई लेखिकाओं की किताबें चर्चित हुई हैं.
हिंदी के लेखकों-पाठकों का वितान बदल रहा है. लेकिन, हिंदी साहित्य की दुनिया में बीते सौ सालों में भी अधिक बदलाव नहीं आया है. आज भी वहां यही सामंती सोच हावी है- लेखिका होती नहीं, वह बनायी जाती है! जब तक यह सोच बनी रहेगी, हिंदी साहित्य की दुनिया को पूरी तरह से जनतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है.

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