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पूरे 77 ही हैं, आगे बढ़ो

वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार पड़ोसी के बेटे की शादी. बारात बनारस जानी है. भाड़े की प्राइवेट बस. दो वाली सीट पर तीन बैठे और और तीन वाली पर चार. कुछ बीच कॉरिडोर में अटैचियों पर बैठा दिये गये. दस-बारह तो छत पर चढ़ा दिये गये. वश चलता तो एक-आध को ड्राइवर की गोद में भी […]

वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
पड़ोसी के बेटे की शादी. बारात बनारस जानी है. भाड़े की प्राइवेट बस. दो वाली सीट पर तीन बैठे और और तीन वाली पर चार. कुछ बीच कॉरिडोर में अटैचियों पर बैठा दिये गये. दस-बारह तो छत पर चढ़ा दिये गये. वश चलता तो एक-आध को ड्राइवर की गोद में भी बैठा देते. रवानगी से पहले गिनती हुई. बस में ठूंसे और कार में दूल्हा सहित बैठे हुओं को शामिल कर कुल 77 बंदे. रास्ते में दो जगह बस रुकी. एक बार चाय-नाश्ते के लिए और दूसरी बार भोजन के लिए. दोनों ही बार गिनती हुई. ठीक है भाई, 77 ही हैं. दोनों बार यह सुनने के बाद ही बस आगे बढ़ी.
यह गिनती करनेवाला बंदा हमें कुछ संदिग्ध लगा. हमने जासूसी की. हमारा अनुमान सही निकला. गिनती वाला बंदा वधू पक्ष का है. वर पक्ष का बंदा उसकी मुट्ठी गरम करता है. वो थोड़ा कुनमुनाता है. लेकिन वर पक्ष का बंदा उसे पुचकार कर मना लेता है. कोई गोरखधंधा है. जैसे-जैसे कारवां बढ़ता गया, हमारी उत्सुकता बढ़ती गयी.
खैर, हम बनारस पहुंचे. फिर गिनती हुई. पूरे 77 पाये गये. जनवासे में कुल 77 पलंग. 77 तकिये और 77 दरियां और 77 चादरें. गर्मी के दिन थे. इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं थी.
नाश्ता आया. समोसे 77, पेस्ट्री 77, बिस्कुट बड़ा नमकीन 77, चाय शुगर और फीकी दोनों मिला कर 77 शक्कर. नाश्ते के बाद टॉफी भी मिली, तो सिर्फ 77 ही. गिनती के लिए हर कदम पर उसी बंदे की ड्यूटी. और उससे चिपका हुआ वर पक्ष से भी वही बंदा. लेकिन यह 77 का भेद नहीं खुल पा रहा था. अब चूंकि हम वर पक्ष से थे और उनके निकट पड़ोसी भी. इस नाते हमें उनकी पिछली तीन-चार पुश्तों का भी इतिहास ज्ञात था. हमने उस पर विहंगम दृष्टि डाली. तब हम इसी नतीजे पर पहुंचे कि कोई ‘डील’ है यह. गिनती वाले बंदे की ड्यूटी थी कि नजर रखे कि किसी भी स्टेज पर बारात में 77 से ज्यादा न बंदे हों और न कोई और आइटम.
नाचते-कूदते हम वधू के द्वार पर पहुंचे. प्रवेश द्वार पर मानो स्कैनर लगा था. एक, दो, तीन… इक्कीस…… अड़तालीस… पचपन… …सत्तर… सतहत्तर और बस. नो एंट्री. वधू के पिता एंट्री प्वॉइंट पर अंबुजा की दीवार बन कर खड़े थे. वर के पिता भागे-भागे आये
श्रीमन नाक कटवायेंगे क्या हमारी?
वधू के पिता बोले- महोदय, आपको मुंह-मांगी रकम दी है. हर आइटम दिया है. टीवी, फ्रिज, एसी, सोना-चांदी, रिश्तेदारों और प्रजा के लिए कपड़े-लत्ते भी. 77 बारातियों के लिए भी गिफ्ट है.
एक गरीब शिक्षक हूं. हर चीज तय हिसाब से हो रही है. बाराती भी पूरे 77 तय हैं. इससे ज्यादा बारातियों की एंट्री चाहते हो, तो 77 रुपया नो प्रॉफिट नो लॉस प्रति प्लेट एक्स्ट्रा पेमेंट आप कर दें. याद रखें कि मैं उनमें से नहीं, जो पगड़ी उतार कर पैरों पर रख दूं. मेरी बेटी गुणी है. कई लड़के मिलेंगे. लेकिन मेरी बेटी और और आपका बेटा एक-दूसरे को चाहते हैं. इसलिए अब तक खामोश हूं. आपकी डिमांड्स के बारे में जब आपके बेटे को पता चलेगा, तो कदाचित आपको रिजेक्ट कर दे.
ड्रामा लंबा खिंचता. कुछ बीच-बचाव वाले बुजुर्ग आगे बढ़े. सुख से शादी हो गयी. वापसी में एक वधू ज्यादा थी. फिर गिनती हुई तो 131 बाराती निकले. वर के कंजूस पिता की आंखें खोलने के लिए वर और वधू के पिता ने ड्रामा रचा था, जो सफल रहा. आधी हकीकत, आधा फसाना. हमें साठ-सत्तर के दशक की कई फिल्में याद आयीं, जिनमें कुछ ऐसी ही टेलर मेड कहानी होती थी और ऐसे ही किरदार. फिल्म के आखिरी सीन में आंखों का खुलना और फिर हैप्पी ‘दि एंड’.

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