बड़ा रिजर्व है, बोले है कम

अनिल रघुराज संपादक, अर्थकाम.काॅम फिराक गोरखपुरी की लाइनें हैं- ‘अब अक्सर चुप-चुप से रहे है, यूं ही कभू लब खोले है; पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले है.’ भारतीय रिजर्व बैंक से रघुराम राजन के जाने के बाद कुछ ऐसी ही कमी कुछ महीनों तक तो सालती ही रहेगी. इसलिए नहीं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 12, 2016 5:50 AM
अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काॅम
फिराक गोरखपुरी की लाइनें हैं- ‘अब अक्सर चुप-चुप से रहे है, यूं ही कभू लब खोले है; पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले है.’ भारतीय रिजर्व बैंक से रघुराम राजन के जाने के बाद कुछ ऐसी ही कमी कुछ महीनों तक तो सालती ही रहेगी. इसलिए नहीं कि वे बिना लाग-लपेट बेधड़क अपनी बात रख देते थे, बल्कि इसलिए कि आज के नौकरशाही तंत्र में उनकी जैसी बौद्धिक ईमानदारी मिलना मुश्किल है. उन्होंने जो कहा और किया, वह देश के आर्थिक व मौद्रिक तंत्र के केंद्रीय स्तंभ की स्वायत्तता व विश्वसनीयता को कायम रखने के लिए बेहद जरूरी था.
उन्हें एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक प्रतीक के रूप में देखा जायेगा, जिसने रिजर्व बैंक के स्वतंत्र कार्यभार व दायित्व से देश को वाकिफ कराया. वरना, अभी तक तो यही माना जाता था कि रिजर्व बैंक का गवर्नर महज एक नौकरशाह है, जिसका रहना या न रहना प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री की खुशी पर निर्भर है और जिसका काम केंद्र सरकार की जी-हुजूरी करना है.
अपने आखिरी भाषण में राजन ने कहा, ‘रिजर्व बैंक की ‘ना’ कहने की क्षमता की हिफाजत की जानी चाहिए. रिजर्व बैंक को सरकार द्वारा बनाये गये फ्रेमवर्क के तहत ही काम करना होगा और उसके कामों पर बराबर सवाल उठाया जा सकता है. लेकिन, रिजर्व बैंक के गवर्नर को अगर देश में आर्थिक नीति का जिम्मा संभालनेवाले सबसे अहम टेक्नोक्रेट का ओहदा दिया गया है, तो उसकी गरिमा बनाये रखी जानी चाहिए.’
राजन को यह सब क्यों कहना पड़ा, इसके राजनीतिक कारण सबको पता हैं. लेकिन, शायद ज्यादातर लोगों को नहीं पता कि वित्त मंत्रालय के नौकरशाहों की सशक्त लॉबी कैसे उनके पंख कुतरने में लगी हुई थी. शायद इसी खींचतानके बीच भारत सरकार अभी तक रिजर्व बैंक के गवर्नर की रैंक तय नहीं कर पायी है, जबकि इसको बने हुए 81 साल हो चुके हैं.
विश्व स्तर पर चलन है कि जी-20 जैसे समूहों की बैठक में देश के वित्त मंत्री के साथ वहां के केंद्रीय बैंक का गवर्नर या चेयरपर्सन भी बैठता है. वजह यह है कि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करनेवाली अहम नीतियों में उसका खास योगदान होता है.
उसकी महत्ता निश्चित रूप से सरकार के किसी भी अन्य नियामक या कैबिनेट सचिव तक से ज्यादा है. अपने यहां रिजर्व बैंक के गर्वनर का वेतन कैबिनेट सचिव के बराबर है. लेकिन, उसकी रैंक सरकारी पदानुक्रम में परिभाषित नहीं है. इसलिए विभिन्न सरकारी अधिकारी रिजर्व बैंक की गतिविधियों की नुक्ताचीनी ही नहीं करते, बल्कि उसमें दखल भी करते हैं, जबकि उन्हें वित्तीय व मौद्रिक मामलों की तकनीकी समझ नहीं होती.
आपको जान कर आश्चर्य होगा कि रिजर्व बैंक सरकार से कुछ लेने के बजाय हर साल उसे हजारों करोड़ रुपये देता है. जैसे, उसने पिछले वित्त वर्ष 2014-15 में केंद्र सरकार को अपने बचे हुए कोष से 65,896 करोड़ रुपये दे दिये थे, जबकि बीते वित्त वर्ष 2015-16 में उसने 65,876 करोड़ रुपये दिये हैं. हाल ही में वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन ने सुझाव दिया कि रिजर्व बैंक को इसके ऊपर से विशेष लाभांश सरकार को देना चाहिए.
राजन इस तरह के दबावों से बिना किसी का पक्ष लिये निर्भीक अंदाज में लड़ते रहे. क्या यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा? उनकी जगह आये उर्जित पटेल भी एक प्रोफेशनल व स्वतंत्र सोच वाले अर्थशास्त्री हैं. इसलिए उनसे यह क्रम जारी रखने की अपेक्षा की जा सकती है. लेकिन, उससे ज्यादा गंभीर सवाल यह है कि घनघोर राजनीतिक दबाव के आगे क्या वे अपनी निष्पक्षता बनाये रख पायेंगे. वैसे, उर्जित पटेल ने सरकार में अपने संगी-साथियों को साधना शुरू कर दिया है. कुछ दिन पहले ही उन्होंने नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया से लंबी मुलाकात की है, जो दशकों से उनके दोस्त रहे हैं.उर्जित पटेल में उद्योग जगत का पूरा विश्वास है.
मौजूदा नीतिगत बदलावों में भी उप-गवर्नर रहते हुए उन्होंने अहम भूमिका निभायी है. अभी उपभोक्ता सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति या रिटेल मुद्रास्फीति को रिजर्व बैंक ने ब्याज दर तय करने का जो आधार बनाना है, उसकी संस्तुति उर्जित पटेल समिति ने ही की थी. नहीं तो तब तक सारी दुनिया के विपरीत अपने देश ने थोक मूल्य मुद्रास्फीति को आधार बना रखा था. राजन की तरह वे भी इसी राय के हैं कि केंद्रीय बैंक का मुख्य काम मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखना है.
सरकार ने अब बाकायदा छह सदस्यों की मौद्रिक नीति समिति बना दी है, जिसमें गवर्नर समेत तीन सदस्य रिजर्व बैंक के होंगे और तीन सदस्य केंद्र सरकार चार साल के लिए चुनेगी. ब्याज दर का फैसला इस समिति की बैठक में बहुमत से होगा. अगर बराबर वोट पड़े, तभी अंतिम फैसला रिजर्व बैंक के गर्वनर को करना होगा, अन्यथा उसकी हैसियत समिति के मात्र एक सदस्य की होगी.
जाहिर है कि सरकार ने परोक्ष रूप से रिजर्व बैंक गवर्नर को बांधने की कोशिश की है. सरकार ने अगले पांच साल के लिए यह भी तय कर दिया है कि रिटेल मुद्रास्फीति की दर अगले पांच साल तक 4 प्रतिशत या उसके दो प्रतिशत ऊपर-नीचे यानी 2 से 6 प्रतिशत के दायरे में रहनी चाहिए. इसे सुनिश्चित करने का जिम्मा रिजर्व बैंक गवर्नर का है.
सवाल है कि प्याज या दाल जैसे जिन उत्पादों के दाम मुद्रा की उपलब्धता कम या ज्यादा होने से नहीं, बल्कि पैदावार व उसके कुप्रबंधन के कारण उठते-गिरते हैं, उन पर रिजर्व बैंक कैसे अंकुश लगा पायेगा? राजनीतिक आका इन स्थितियों में रिजर्व बैंक पर सवाल उठाने लगेंगे.
फिर भी रिजर्व बैंक को मुद्रास्फीति ही नहीं, सरकार के ऋण से लेकर रुपये की विनिमय दर तक की देखभाल करनी होगी. यह दायित्व निभाने में राजनीति से उसका टकराव होना तय है.
इसमें भी असली चुनौती यह होगी कि सरकार सारा कुछ जनता के नाम पर करेगी, भले ही उससे जनता का नहीं, किसी और का भला होता हो. राजन ने इस चुनौती का मुकाबला बखूबी किया, लेकिन वे रिजर्व बैंक की विश्वसनीयता को एक हद तक ही स्थापित कर पाये हैं. उर्जित पटेल को इसे मंजिल तक पहुंचाना है. बताते हैं कि उर्जित पटेल की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे बोलते कम और काम ज्यादा करते हैं.

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