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आदर्श गांव की दुर्दशा

डॉ भरत झुनझुनवाला अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी के दो गांवों को गोद लिया है. इन गांवों की बुनियादी व्यवस्थाओं में अप्रत्याशित सुधार हुआ है. सोलर पैनल से गांव में 24 घंटे बिजली उपलब्ध है. सड़कों पर टाइल्स लगी है. पानी की सप्लाई के लिए ओवरहेड टैंक निर्माणाधीन है. तमाम घरों में बायो-टायलेट का […]

डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी के दो गांवों को गोद लिया है. इन गांवों की बुनियादी व्यवस्थाओं में अप्रत्याशित सुधार हुआ है. सोलर पैनल से गांव में 24 घंटे बिजली उपलब्ध है. सड़कों पर टाइल्स लगी है. पानी की सप्लाई के लिए ओवरहेड टैंक निर्माणाधीन है.
तमाम घरों में बायो-टायलेट का निर्माण किया जा चुका है. बस स्टैंड पर यात्रियों के बैठने के लिए सुंदर शेड बनाये गये हैं. बावजूद इसके वर्तमान में 4,000 की आबादीवाले जयापुर गांव में 25 से अधिक युवा बेरोजगार हैं. गांव में 20 से 30 वर्ष की आयुवाले लोगों की संख्या लगभग 200 होगी. इनमें से लगभग 10 प्रतिशत बेरोजगार हैं. कई युवाओं ने आइटीआइ की है. वे भी गांव छोड़ कर शहर में सरकारी नौकरी को तड़प रहे हैं. जाहिर है कि आर्थिक सुधार नहीं हुआ है.
ऐसा होना स्वाभाविक है. दरअसल, आज गांव अप्रासंगिक हो चुके हैं. खेती का मौलिक ढांचा बदल गया है. ट्रैक्टर की खोज ने परिस्थिति में मूल परिवर्तन किया है. अब 15 किलोमीटर दूर स्थित खेत पर ट्रॉली से लेबर ले जाकर कटाई-बुआई कराना आसान हो गया है. यही वजह है कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान छोटे कस्बों में बसना पसंद कर रहे हैं. इन कस्बों में बस, सड़क, स्कूल, अस्पताल, मोबाइल, टेलीविजन आदि की सुविधा गांवों की तुलना में अच्छी है.
स्वतंत्रता के समय देश की आय में कृषि का हिस्सा लगभग 50 प्रतिशत था. साठ वर्षों में यह घट कर 20 प्रतिशत से भी कम हो गया है. विकसित देशों में कृषि का हिस्सा एक प्रतिशत से भी कम है. आर्थिक विकास के साथ–साथ देश में कल-कारखाने और सॉफ्टवेयर पार्क स्थापित हुए हैं. इनसे शहरों में आय तेजी से बढ़ती है. फलस्वरूप, देश की आय में कृषि का हिस्सा घट गया है.
मैन्यूफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र की तर्ज पर कृषि में आय की वृद्धि नहीं हो पाती है, चूंकि इनमें निवेश की सीमा है. पांच एकड़ के खेत में एक ट्रैक्टर और एक ट्यूबवेल लगाने के बाद और निवेश नहीं किया जा सकता है, जबकि किसी सॉफ्टवेयर पार्क में आधुनिकतम कंप्यूटरों एवं राउटरों में निवेश की असीमित संभावनाएं हैं. निवेश के अभाव में कृषि में आय भी सीमित रहती है. खबर है कि जयापुर में आधुनिक लूम लगा कर एक दर्जन महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराया गया है. नि:संदेह यह रोजगार सब्सिडी पर चल रहा होगा और स्थायी नहीं रहेगा. कारण कि इन्हीं लूमों को शहर में लगाना ज्यादा लाभप्रद रहता है. शहर में बिजली 20 घंटे उपलब्ध रहती है.
दिन के समय बिजली न आये, तो गांव में उस दिन के उत्पादन का नुकसान हो जाता है. मशीन में खराबी आ जाये, तो शहर में मिस्त्री को बुला कर दो घंटे में दुरुस्त कराया जा सकता है. जबकि गांव में उसी काम को दो-तीन दिन लग जाते हैं. बुने कपड़े को आसानी से बाजार उपलब्ध हो जाता है. तमाम सर्वोदय आश्रमों द्वारा इस दिशा में किये गये प्रयास असफल हुए हैं. गांव की परिस्थिति आज जमींदारी समाप्त होने के बाद ठिकाने की हालत जैसी है.
इस परिस्थिति में कृषि विकास के दूसरे आयाम खोजने होंगे. आज नीदरलैंड में ट्यूलिप के फूलों की भारी मात्रा में खेती हो रही है. वहां आम श्रमिक की दिहाड़ी लगभग 7,000 रुपये प्रतिदिन है.
इसी तर्ज पर आज कई फार्म विशेष प्रकार के फल पैदा कर रहे हैं. आजकल पूरे विश्व में ऑर्गेनिक खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ रही है. रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के बिना उपजाये फल, सब्जी, अनाज और शहद के दाम ज्यादा मिलते हैं. बस स्टैंड मात्र बना देने से काम नहीं चलेगा, चूंकि किसान के पास किराया देने के लिए आय नहीं है. उन्नत कृषि को कस्बों से लागू करना ज्यादा आसान होगा. अत: मोदीजी को कस्बे गोद लेने पर विचार करना चाहिए.
नयी तकनीकों के आविष्कार से कृषि में श्रम की जरूरत भी कम हो गयी है. पहले बैल से जुताई होती थी और हाथ से बीज डाले जाते थे तथा निराई की जाती थी. मजदूर फसल की कटाई करते थे. आज ये सब कार्य मशीनों से होते हैं. पूर्व में 10 एकड़ की जमीन में यदि 10 श्रमिक लगते थे, तो आज केवल दो श्रमिक की जरूरत रह गयी है. शेष आठ मजदूर आज शहर की ओर पलायन करने को मजबूर हैं.
प्रलोभन देकर इन्हें गांव में उलझाये रखना इनके प्रति अन्याय होगा. मोदी को चाहिये कि जयापुर गांव के युवाओं के पलायन को सुलभ बनाएं. आज आइटीआइ डिग्रीधारक बेरोजगार हैं. उन्हें आइटीआइ में प्रैक्टिकल ट्रेनिंग नहीं दी जा रही है. मोदीजी को चाहिए कि जयापुर के युवाओं को प्रैक्टिकल ट्रेनिंग देने की व्यवस्था करें, जो उनके पलायन में सहायक हो. फल पक जाता है तो उसे पेड़ से तोड़ना ही अच्छा माना जाता है. इसी प्रकार गांव के युवा पक चुके हैं.
इन्हें अन्यत्र भेज देना ही, इनके भविष्य को उज्ज्वल करने का रास्ता है. हमारे गांवों के आदर्श बनने में पेंच इस बात का है कि इनकी आधारभूत आर्थिकी को ट्रैक्टर और ट्यूबवेल ने श्रम विहीन बना दिया है. अत: मोदी को आदर्श गांव के बजाय आदर्श कस्बों का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए.

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