मीडिया और फिल्म से बाहर देश
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया इस कॉलम के पुराने पाठकों को 20 साल पहले का दौर याद होगा, जब समाचारपत्रों में आये दिन दहेज हत्या की खबरें प्रकाशित हुआ करती थीं.उन दिनों इस तरह की खबरों का एक तरह से चलन-सा हो गया था. तकरीबन हर दूसरे दिन लगभग एक जैसी खबरें अखबारों […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
इस कॉलम के पुराने पाठकों को 20 साल पहले का दौर याद होगा, जब समाचारपत्रों में आये दिन दहेज हत्या की खबरें प्रकाशित हुआ करती थीं.उन दिनों इस तरह की खबरों का एक तरह से चलन-सा हो गया था. तकरीबन हर दूसरे दिन लगभग एक जैसी खबरें अखबारों में प्रकाशित होती रहती थीं- एक युवती को उसके ससुरालवालों ने आग के हवाले कर दिया, हालांकि, ससुरालियों का कहना है कि उनकी बहू रसाेई में स्टोव के फटने से जल गयी. युवती को जलाने के अपराध में उसके सास-ससुर सहित पति को भी गिरफ्तार कर लिया जाता था.
अब इस तरह की खबरें अखबारों, खासकर अंगरेजी अखबारों, में नहीं छपतीं, टेलीविजन चैनलों पर तो निश्चित रूप से नहीं दिखायी जातीं. आखिर इन खबरों के साथ ऐसा क्यों हुआ? इस दौरान कुछ ऐसे कानून बनाये गये, जिनमें इस तरह की मृत्यु होने पर ससुरालवालों पर ही खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेवारी आ गयी. इन कानूनों के तहत बहू के जलकर मरने की स्थिति में सारा दोष खुद-ब-खुद ससुरालवालों पर आ जाता था.
संभवत: ऐसे कड़े कानूनों की वजह से ही हमें अब दहेज हत्या से जुड़ी खबरें अखबारों में पढ़ने को नहीं मिलती हैं.लेकिन असल में इसका कारण और है. सच यह है कि दहेज हत्या के मामलों में कमी नहीं आयी है. इन वर्षों में ऐसे मामलों की बड़ी संख्या बरकरार है. वर्ष 2015 में जहां 7,634 मौतें हुईं, वहीं 2014 में यह संख्या 8,455 रही थी. वर्ष 2013 और 2012 में ऐसी मौतों की संख्या क्रमशः 8,083 और 8,233 थी. भारत में औसतन हर दिन ऐसी 20 से अधिक हत्याएं होती हैं. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि 20 साल पहले की तुलना में आज ऐसी हत्याओं की संख्या अधिक है.
तो, फिर ऐसा क्यों है कि हम उनके बारे में कम पढ़ते-सुनते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि खासकर राष्ट्रीय मीडिया में और उसमें भी अंगरेजी मीडिया में इनकी रिपोर्टिंग नहीं की जाती है. उन्हें अपराध या मानवीय रुचि की उन खबरों में कोई दिलचस्पी नहीं है जिनका धनी वर्ग से कोई लेना-देना नहीं है. मीडिया कवरेज में भारत के एक तबके, आबादी के सबसे बड़े हिस्से, की जानबूझ कर अवहेलना की जाती है.
इसका सीधा कारण यह है कि समाचारपत्र के मालिकों और विज्ञापन निर्देशकों द्वारा इस तरह की खबरों को ‘डाउनमार्केट’ यानी तुच्छ समझा जाता है. इसके पीछे का सिद्धांत यह है कि इस तरह की खबरें अंगरेजी पाठकों को आकर्षित नहीं करती हैं. उनकी रुचि तो ‘अपमार्केट’ यानी उच्च वर्गीय खबरें पढ़ने में है. कहने का अर्थ यह है कि ऐसे लोगों द्वारा या तो अपने जैसे लोगों या फिर धनी और बहुत ज्यादा प्रसिद्ध लोगों की चिंता की जाती है. वर्ष 1995 के आसपास जब यह रवैया शुरू हुआ, तब संपादकों और पत्रकारों मे कुछ प्रतिरोध दर्ज किया था. लेकिन जैसा दहेज हत्या की खबरों के साथ हुआ, पत्रकारों ने भी हार मान ली. वे इस तरह की घटना की रिपोर्टिंग उसकी गंभीरता के आधार पर नहीं, बल्कि उसमें शामिल किरदारों को देख कर करने लगे. मुंबई में, जहां कुछ लोगों के बारे में पत्रकारिता (जिसे तब पेज-3 रिपोर्टिंग कहा जाता था) की शुरुआत हुई, वहां जगह के आधार पर इस तरह की रिपोर्टिंग करना बहुत आसान था. समाचारपत्रों ने शहरों के कुछ हिस्से, मध्य वर्ग और गरीब तबके से जुड़ी खबरें दिखाने की बजाय केवल उन जगहों की खबरें देने लगे, जहां धनी और प्रसिद्ध लोग रहते हैं.
मेरी राय में इस तरह की पत्रकारिता ने गैर-अंगरेजी अखबारों को भी कुछ हद तक प्रभावित किया. एक दशक पहले जब मैं अहमदाबाद में एक गुजराती अखबार का संपादक था, तब ऐसी ही प्रवृत्तियां हावी थीं, और अहमदाबाद के कुछ हिस्सों को इस आधार पर नजरअंदाज किया जाता था कि उन इलाकों में उस अखबार के ज्यादातर पाठक नहीं रहते थे.
पाठकों को यह भी दिलचस्प लगेगा कि भारतीय सिनेमा उद्योग में भी ऐसा ही कुछ हुआ. तीन दशक पहले तक यह बेहद सामान्य बात थी कि एक बॉलीवुड हीरो का जन्म एक गरीब परिवार में होता था और वह अपनी गरीबी को लेकर शर्मिंदा नहीं होता था. वर्ष 1983 में अमिताभ बच्चन ने सफल फिल्म ‘कुली’ में कुली की भूमिका निभायी थी. लेकिन आज के दौर में किसी फिल्मी हीरो का मजदूर वर्ग से होने की बात सोची भी नहीं जा सकती है.
वर्ष 1996 में ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ और ऐसी ही कुछ फिल्में रिलीज हुई थीं. उन फिल्मों में आम भारत से जुड़े हुए प्रमुख मुद्दे नहीं थे. इसके उलट, इन फिल्मों में धनी परिवारों से जुड़े कुछ बेहद मामूली मुद्दे थे. इन फिल्मों में उस समाज की सच्चाई को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया था जिसमें इन्हें निर्मित किया जा रहा था. इसी अवधि में मॉल में मल्टीप्लेक्स थिएटरों की शुरुआत हुई थी.
इन थिएटरों में टिकट सामान्य सिनेमा हॉल से दोगुने या उससे ज्यादा दाम पर मिलते थे. इस तरह से इन मल्टीप्लेक्सों ने अधिकतर भारतीयों को सिनेमा देखने से वंचित कर दिया, जो इतनी महंगी टिकट नहीं खरीद सकते थे. उन दिनों अन्याय और हिंसा के विषय बॉलीवुड की ‘बी’ ग्रेड कही जानेवाली फिल्मों, जिनमें धर्मेंद्र और मिथुन चक्रवर्ती अग्रणी भूमिका में होते थे, में बरकरार थे. हालांकि, ऐसी फिल्में मल्टीप्लेक्स में नहीं दिखायी जाती थीं, लेकिन सिंगल स्क्रीन हॉल और छोटे शहरों में (जिन्हें बी टाउन भी कहा जाता था) में दिखायी जाती थीं. अब ऐसी फिल्में भी नहींबनती हैं.
हमारे यहां की पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में समानता है. वे जान-बूझकर आबादी के एक बड़े हिस्से को नजरअंदाज करते हैं. इसलिए नहीं कि इन लोगों से जुड़ी घटनाएं या मुद्दे रिपोर्ट या लेखन की दृष्टि से महत्व नहीं रखते हैं, बल्कि इसलिए कि ऐसा माना जाता है कि भारत के शहरी, उच्च जाति के और उच्च वर्गीय पाठक और दर्शक वर्ग इन बातों की चिंता नहीं करते हैं. बेशक इस तरह की सोची-समझी क्रूरता के बड़े दुष्परिणाम हुए हैं, जिनके बारे में हम फिर कभी चर्चा करेंगे.