गरीबी का मजाक उड़ानेवाले आंकड़े
दुनियाभर में गरीबी-रेखा का इस्तेमाल असहाय जनता के सशक्तीकरण और उन्हें विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए होता है, लेकिन अपने देश में इसका उपयोग गरीबी का मजाक उड़ाने के लिए हो रहा है. बीते साल के मध्य में यूपीए सरकार ने अपनी उपलब्धियां गिनाने के क्रम में साबित करना चाहा था कि […]
दुनियाभर में गरीबी-रेखा का इस्तेमाल असहाय जनता के सशक्तीकरण और उन्हें विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए होता है, लेकिन अपने देश में इसका उपयोग गरीबी का मजाक उड़ाने के लिए हो रहा है. बीते साल के मध्य में यूपीए सरकार ने अपनी उपलब्धियां गिनाने के क्रम में साबित करना चाहा था कि उसके शासन के दौरान देश में गरीबों की संख्या कम हुई है.
इसके लिए सहारा लिया योजना आयोग के आंकड़े का. आयोग ने गरीबी से संबंधित अपने तत्कालीन आकलन में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 29 रुपये खर्च करने की क्षमता को गरीबी-रेखा माना था. यूपीए सरकार ने इस आधार पर बताया कि देश में गरीबों की संख्या 40 करोड़ से घट कर 30 करोड़ से भी कम हो गयी है.
भारी महंगाई के बीच उस वक्त यूपीए के इस आंकड़े की चौतरफा आलोचना हुई, तो इसे सही साबित करने के लिए कांग्रेस नेताओं ने यह तक कह दिया था कि मुंबई में 12 रुपये और दिल्ली में 5 रुपये में भरपेट खाना मिल जाता है. इसके बाद से ही भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों में यह बात बार-बार कही जाती है कि यूपीए के शासन में रहते इस देश का भगवान ही मालिक है, क्योंकि वह तो 29 रुपये रोज की कमाईवाले को गरीब ही नहीं मानती.
लेकिन योजना आयोग और मनमोहन सिंह के गरीबी विषयक तर्क का माखौल उड़ाते समय मोदी को गुमान भी नहीं रहा होगा कि उनका दावं उल्टा भी पड़ सकता है. यूपीए की आर्थिक नीतियों की जिस हृदयहीनता का वे अपने चुनावी भाषणों में मजाक उड़ाते रहे, उसी हृदयहीनता की एक बानगी खुद उनके प्रदेश गुजरात (जिसे वे विकास का मॉडल बताते हैं) में देखने को मिली है. गुजरात सरकार का अन्न और नागरिक आपूर्ति विभाग गरीबी की नयी परिभाषा तय करने में यूपीए सरकार से भी एक कदम आगे निकल गया है.
विभाग के अनुसार गुजरात के ग्रामीण इलाकों में 10 रुपये 80 पैसे और शहरों में 17 रुपये रोजाना की कमाई करनेवाला व्यक्ति गरीब नहीं है. आंकड़ों की ऐसी बाजीगरी कागज पर सरकार की उपलब्धियां तो दर्ज कर सकती हैं, लेकिन लोगों के दिलों में अपने प्रति विश्वास नहीं पैदा कर सकती, जबकि लोकतंत्र अपने बुनियादी अर्थ में शासन पर लोगों के साझे विश्वास का ही नाम है.