गवर्नेस का ग्लोबलाइजेशन

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।। अर्थशास्त्री ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जो देश सुशासित होगा वही जीतेगा. जैसे स्वीमिंग पूल में धकेले जाने के बाद तैरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता है, उसी प्रकार ग्लोबलाइजेशन में धकेले जाने के बाद सुशासन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 4, 2014 5:27 AM

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।

अर्थशास्त्री

ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जो देश सुशासित होगा वही जीतेगा. जैसे स्वीमिंग पूल में धकेले जाने के बाद तैरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता है, उसी प्रकार ग्लोबलाइजेशन में धकेले जाने के बाद सुशासन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.

गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने हमें ध्यान दिलाया है कि हमारी सरकारें जनता की अपेक्षा पर खरी नहीं उतर रही हैं, फलस्वरूप देश में असंतोष व्याप्त है. यही कहानी आर्थिक क्षेत्र की है. पिछले पांच वर्षों में अर्थव्यवस्था में गिरावट के पीछे कुशासन ही दिखाई देता है. विकास दर लगातार गिर रही है, महंगाई बढ़ रही है और रुपया टूट रहा है. महंगाई बढ़ने का कारण है सरकार द्वारा अपने राजस्व का लीकेज किया जाना.

जैसे सरकार का राजस्व एक करोड़ रुपया हो, उसमें 20 लाख रुपये का रिसाव करके अफसरों तथा नेताओं के द्वारा सोना खरीद लिया गया. अब सरकार के पास वेतन आदि देने के लिए रकम नहीं बची. इन खचरें को पोषित करने के लिए सरकार ने बाजार से ऋण लिये. ऋण को लेना आसान बनाने के लिए रिजर्व बैंक ने नोट छापे, जिससे मुद्रा बाजार में रकम की उपलब्धता बढ़े और सरकार आसानी से ऋण ले सके. पहले ही एक करोड़ के नोट प्रचलन में थे, 20 लाख के नोट और चक्कर काटने लगे. इससे सभी वस्तुओं के दाम बढ़ने लगे. नये छापे गये नोटों की भूमिका खरीददार जैसी होती है. इस प्रकार लीकेज के कारण नोट छापने पड़े और महंगाई बढ़ रही है.

ग्रोथ रेट के गिरने का कारण भी रिसाव है. ग्रोथ रेट बढ़ाने के लिए व्यक्ति को खपत कम और निवेश ज्यादा करना पड़ता है. जैसे दुकानदार 2000 कमाये और 1000 निवेश करे तो ग्रो करता है. इसके विपरीत यदि वह 2000 कमाये और ऋण लेकर 3000 खर्च करे तो फिसलने लगता है. पिछले दशक में सरकार ने लोन वेवर, मनरेगा तथा राइट टू फूड के माध्यम से ऐसे ही खचरें को पोषित किया है. हाईवे और रिसर्च में निवेश में कटौती की गयी है. इससे गरीब को राहत जरूर मिली है, लेकिन ग्रोथ दबाव में आ गयी है और जनता बेरोजगार है. लोगों को रोजगार देने के स्थान पर अनाज बांट कर उनका वोट खरीदना कुशासन ही है.

रुपये के टूटने का कारण भी कुशासन है. हमारे माल की उत्पादन लागत ज्यादा आती है. हमारे उद्यमियों को भारी मात्र में घूस देनी पड़ती है. अत: माल महंगा हो जाता है. वे निर्यात नहीं कर पाते हैं, क्योंकि दूसरे देशों में माल की लागत कम आती है और उनका माल सस्ता पड़ता है. निर्यात कम होने के कारण हमें डॉलर कम मात्र में मिलते हैं. आयात बढ़ने के कारण डॉलर की डिमांड ज्यादा होती है. सप्लाई और डिमांड के असंतुलन के कारण डॉलर महंगा हो जाता है और तुलना में रुपया सस्ता हो जाता है. इस प्रकार हमारी समस्याओं की जड़ में भ्रष्टाचार और कुशासन ही नजर आता है.

वास्तव में गवर्नेस का ग्लोबलाइजेशन हो चुका है. पूर्व में हम अपनी सरहद के अंदर भ्रष्टाचार को पोषित कर सकते थे. भ्रष्टाचार के कारण भारत में मोबाइल फोन 5,000 रुपये में मिले, जबकि दूसरे देशों में वह 4,000 रुपये में, तो व्यवस्था गड़बड़ाती नहीं थी, क्योंकि सस्ते मोबाइल के आयात पर प्रतिबंध था.

अब वही भ्रष्टाचार समस्या बन गया है, चूंकि दूसरे सुशासित देशों में बना सस्ता माल प्रवेश कर रहा है और हमारी अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जो देश सुशासित होगा वही जीतेगा. अब हमारे पास अपनी शासन प्रणाली को ग्लोबल स्टैंडर्ड पर सुधारने के अलावा कोई चारा नहीं है. जैसे स्वीमिंग पूल में धकेले जाने के बाद तैरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता है, उसी प्रकार ग्लोबलाइजेशन में धकेले जाने के बाद सुशासन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली नयी सरकार यदि गवर्नेस में सुधार लाने में सफल रही तो रिसाव कम होगा और अर्थव्यवस्था स्वयं चल निकलेगी.

वैश्विक परिस्थितियों का भी 2014 पर प्रभाव पड़ेगा. मुद्दा अमेरिका की चाल का है. 2008 के बाद अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने निवेशकों से ऋण लेकर भारी भरकम स्टिमुलस पैकेज लागू किया है. स्टिमुलस के आधार पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में ग्रोथ दिख रही है, जैसे बीमार को ग्लूकोज चढ़ाया जाये तो कुछ समय के लिए वह उठ खड़ा होता है. लेकिन ऋण लेने की एक सीमा है, जैसे ग्लूकोज चढ़ा कर मरीज को ज्यादा दिन तक स्वस्थ नहीं किया जा सकता है.

इस बढ़ते ऋण के दूरगामी दुष्प्रभाव को देखते हुए अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने स्टिमुलस की मात्र घटाने का निर्णय लिया है. प्रश्न है कि स्टिमुलस की इस टेंपरिंग को अमेरिकी अर्थव्यवस्था झेल पायेगी या नहीं? जो भी हो, विश्लेषकों का मत है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव का हम पर मिलाजुला ही असर पड़ेगा, जैसा पहले भी होता आया है.

निष्कर्ष है कि 2014 की एक मात्र चुनौती सुशासन की है. गवर्नेस को ग्लोबल मानदंडों पर लाने के सिवा दूसरा विकल्प नहीं है. सुशासन स्थापित होगा तो हमारी अर्थव्यवस्था स्वत: चल निकलेगी. अन्यथा हम इसी तरह अपनी घरेलू नाकामयाबी को वैश्विक कारणों पर अनायास थोपते रहेंगे.

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