किसे चाहिए कांग्रेस-मुक्त भारत!

।। उर्मिलेश ।। वरिष्ठ पत्रकार आम आदमी पार्टी ने अगर अपने सोच और एजेंडे में बुनियादी बदलाव नहीं किया, तो देश के कुछेक हलकों में वह सिर्फ कांग्रेस की एक ‘युवा बहन’ के तौर पर सामने आ सकती है, विकल्प के तौर पर तो हरगिज नहीं!‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा नरेंद्र मोदी का है. भाजपा की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 4, 2014 5:35 AM

।। उर्मिलेश ।।

वरिष्ठ पत्रकार

आम आदमी पार्टी ने अगर अपने सोच और एजेंडे में बुनियादी बदलाव नहीं किया, तो देश के कुछेक हलकों में वह सिर्फ कांग्रेस की एक ‘युवा बहन’ के तौर पर सामने आ सकती है, विकल्प के तौर पर तो हरगिज नहीं!‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा नरेंद्र मोदी का है. भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित होने के बाद से उन्होंने कई मौकों पर लोगों का आह्वान किया कि वे देश से कांग्रेस को खत्म करें, क्योंकि सारी समस्याओं की जड़ यही पार्टी है. पर मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य का बड़ा सच यह है कि मोदी या उनकी पार्टी को ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ नहीं, ‘कुंद और लुंजपुंज कांग्रेस’ चाहिए, ताकि वे कभी उसे हराएं और कभी हारें.

भाजपा और कांग्रेस, दोनों अलग-अलग रंग और ढंग से चलनेवाली पार्टियां हैं. वर्षो से दोनों एक साथ मजे से जीवित हैं. वह एक-दूसरे से लड़ती हैं, पर एक-दूसरे को खाती नहीं हैं. आम आदमी पार्टी (आप) के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. दिल्ली के चुनाव में ‘आप’ का अभ्युदय कांग्रेस के पराभव के साथ हुआ. दिल्ली की सूबाई सियासत में सफलता से उत्साहित ‘आप’ अगर राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी ताकत बनने का सपना देख रही है तो असल में भाजपा के बजाय उसे चाहिए ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’!

सामाजिक रूप से देखें, कांग्रेस का मुख्य आधार सवर्ण मध्यवर्गीय समुदाय रहे हैं.इसमें दलित और अल्पसंख्यक मिल कर उसे सत्ता तक पहुंचाते रहे हैं. सोच, कार्यदिशा और सामाजिक आधार के स्तर पर ‘आप’ भी इसी तरह का सामाजिक-गठबंधन बनाने की कोशिश कर रही है. शहरी मध्यवर्ग पर उसका जोर है. 1998 और 2002 के बीच, इस वर्ग की पहली पसंद अटल बिहारी वाजपेयी माने गये. लेकिन 2004 में सत्ता में आने के बाद डॉ मनमोहन सिंह उसके नायक बन गये. 2009 के चुनाव में इस वर्ग के पुख्ता समर्थन के बल पर ही कांग्रेस को दोबारा सत्ता मिली.

देश की 170 से अधिक शहरी सीटों के नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैं. कांग्रेस में प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने के लिए कई पुराने नेता जीभ लपलपा रहे थे, पर आलाकमान ने सुधारों से आह्लादित मध्यवर्ग की ख्वाहिशों का ख्याल रखते हुए डॉ सिंह को पीएम पद पर बरकरार रखा. लेकिन दूसरे कार्यकाल में डॉ सिंह ने इस वर्ग को निराश किया.

इस वर्ग का दायरा तबसे और बढ़ा है. तमाम तरह के घोटालों के परदाफाश की पृष्ठभूमि में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल दिल्ली और कुछ अन्य शहरों में मध्यवर्ग के नये नायक के रूप में उभरे. बाद में केजरीवाल ने अन्ना से किनारा कर ‘आप’ का गठन किया. केजरीवाल के पास उस वक्त वैकल्पिक राजनीति या अर्थनीति का कोई नया खाका नहीं था. आज भी नहीं है. वे सिर्फ व्यवस्था, ‘जिसे मौजूदा कांग्रेस ने बरबाद कर रखा है’, को दुरुस्त करने की बात करते हैं.

गांधीजी आजादी के बाद ही कांग्रेस को खत्म करने के पक्ष में थे. उनकी नृशंस हत्या और डॉ आंबेडकर से किनारा करने के बाद कांग्रेस शासन की पार्टी’ बनती गयी. दोनों राजनीतिक चिंतकों के सोच और कार्यदिशा से किनारा करके उसने साफ संदेश दिया कि वह अब स्वराज, आर्थिक आजादी और बदलाव की नहीं, शासन या राजकाज की पार्टी होगी.

इसी तरह ‘आप’ के शीर्ष नेता कहते हैं कि वे राजनीति में सिर्फ इसलिए उतरे हैं कि हमारे शासनतंत्र में भ्रष्टाचार और वीआइपी कल्चर जैसे कुछ दोष आ गये हैं. इन दोषों को हटाने के लिए ‘आप’ बनी है. बस, इतना लक्ष्य है ‘आप’ का. इस मायने में दोनों पार्टियां मूल-व्यवस्था की पोषक दिखती हैं. सिर्फ उन्हें व्यवस्था की कुछ विकृतियों से परहेज है. भ्रष्टाचार को कांग्रेस भी व्यक्ति-विशेष की कमजोरी

असल समस्या, जो बुनियादी तौर पर हमारे शासन-तंत्र से जुड़ी है, उसे हर सरकार, हर दल की तरफ से नजरअंदाज किया गया है. ठेके-टेंडर में भ्रष्टाचार तो इस तंत्र के सामान्य पहलू हैं. असल सवाल तो व्यवस्था और प्रक्रिया में बदलाव का है.

ऐसे में कांग्रेस अगर अपनी कथनी-करनी में सुधार कर ले, तो फिर ‘आप’ और केजरीवाल के लिए जगह कहां बचती है? ‘आप’ तभी बढ़ेगी, जब कांग्रेस का पराभव जारी रहे और सेक्युलर धारा की दूसरी कोई ताकत कांग्रेस के पतन से खाली हो रहे स्थान को भरने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सामने नहीं आये.

भाजपा को फिलहाल अपने सामाजिक आधार और राजनीतिक दायरे में किसी अन्य दल या खेमे से खतरा नहीं है. गैर-सेक्युलर धारा की वह पहले भी सबसे बड़ी राजनीतिक धुरी थी और रहेगी. शिवसेना सरीखे खेमे क्षेत्रीय स्तर तक ही सीमित रहेंगे. लेकिन कांग्रेस के सामने भविष्य में अपनी राष्ट्रीय भूमिका सुनिश्चित करने की कड़ी चुनौती है.

आज की तारीख में ‘आप’ भले ही अपेक्षाकृत छोटी ताकत हो, पर उसके राजनीतिक मंसूबे बड़े हैं. फंडिंग के उसके स्नेत भी अजस्र हैं. लंबे समय से सत्ता का स्वाद चख चुकी कांग्रेस आम जन तक सिर्फ चुनावों के दौरान विज्ञापनों के जरिये जाती है, नयी-नवेली ‘आप’ के टोपीधारी कार्यकर्ता लगातार जन-जन तक पहुंच रहे हैं. ‘आप’ कांग्रेस की जगह लेना चाहती है, थोड़ी बेहतर कांग्रेस बन कर. बड़े कांग्रेसी नेता अनौपचारिक चरचा में राजनीतिक प्रक्रिया के इन खतरों और चुनौतियों को स्वीकार करते हैं.

‘आप’ ने अपने सियासी सफर के लिए उसी मार्ग को चुना है, जिस पर कांग्रेस आजादी के बाद से चलती रही है. इसलिए ‘मार्ग’ के एकाधिकार के लिए दोनों के बीच सियासी जंग और तेज होगी.

दिलचस्प बात है कि ‘आप’ की सांगठनिक संरचना और नेतृत्व की वैचारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि देखें तो कांग्रेस के साथ उसकी अद्भुत समानताएं नजर आती हैं. ‘आप’ भले ही परिवार-आधारित नेतृत्ववाली पार्टी न हो, पर कांग्रेस की तरह उसमें आलाकमान-केंद्रित कार्यप्रणाली की झलक मिलती है. केजरीवाल नयी पार्टी के अलाकमान हैं.

अगर उन्होंने अपने विवादास्पद मंत्री सोमनाथ भारती का साथ देने का फैसला किया तो पार्टी में किसी की हैसियत नहीं जो तनिक भी असहमति जता सके. कश्मीर सहित राष्ट्रीय-राजनीति से जुड़े कुछ जटिल सवालों पर ‘आप’ अपने वरिष्ठ संस्थापक नेता प्रशांत भूषण के बयान से अपने को अलग करती रही है, पर कुमार विश्वास के जाति-लिंग पूर्वाग्रह से प्रेरित बयानों के बावजूद पार्टी ने कभी उन्हें खारिज नहीं किया. वजह साफ है, प्रशांत का वाम-झुकाव ‘आप’ के मूल स्वभाव के खिलाफ जाता है.

लेकिन इधर, ‘आप’ की राजनीति पर अंदर-बाहर से बहुतेरे सवाल उठने लगे हैं. ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि ‘आप’ देश के सुदूर इलाकों के आम लोगों, सभी वर्गों-जातियों के बेहालों, दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों की आवाज कैसे बन पायेगी? अगर उसने अपने सोच और एजेंडे में बुनियादी बदलाव नहीं किया, तो देश के कुछेक हलकों में वह सिर्फ कांग्रेस की एक ‘युवा बहन’ के तौर पर सामने आ सकती है, विकल्प के तौर पर तो हरगिज नहीं!

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