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भारत-पाक युद्ध के इतर विकल्प

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया आधुनिक युद्ध के महान विचारक जनरल कार्ल वॉन क्लाउसेविट्ज ने कहा था कि युद्ध राजनीति का ही विस्तार है. उनके कहने का अर्थ यह था कि युद्ध क्रोध में उठाया गया कदम नहीं है, बल्कि तर्क के असफल हो जाने पर यह सोच-समझ कर किया गया निर्णय है. […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
आधुनिक युद्ध के महान विचारक जनरल कार्ल वॉन क्लाउसेविट्ज ने कहा था कि युद्ध राजनीति का ही विस्तार है. उनके कहने का अर्थ यह था कि युद्ध क्रोध में उठाया गया कदम नहीं है, बल्कि तर्क के असफल हो जाने पर यह सोच-समझ कर किया गया निर्णय है.
युद्ध को हमेशा एक ऐसे विकल्प के तौर पर देखना चाहिए, जब दूसरा पक्ष हमारी इच्छा के आगे हमेशा के लिए झुक जाये. ऐसा संभव नहीं होने की स्थिति में युद्ध का कोई मोल नहीं होता है. अगर मुझे आपसे कोई समस्या है, तो मैं इसे तीन में से एक तरीके से हल कर सकता हूं. मैं आपसे बातचीत कर सकता हूं, किसी दूसरे पक्ष को मध्यस्थ (जैसे अदालत या पंच) बना सकता हूं या आप पर अपनी मांग मानने का दबाव डाल सकता हूं. वॉन क्लाउसेविट्ज के मुताबिक, दूसरों पर दबाव डालनेवाले इस तीसरे विकल्प में ही युद्ध निहित होता है. इनके अतिरिक्त किसी समस्या के हल का कोई चौथा विकल्प नहीं है.
लंबे समय से हमने पाकिस्तान से बातचीत करने से इनकार किया हुआ है. बातचीत बंद कर देना, वास्तव में कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि हमें पाकिस्तान से कुछ चाहिए. हम उससे जो चाहते हैं कि वह हमारे देश में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देना बंद करे. अगर हम सचमुच इस बात को लेकर गंभीर हैं, तो हमें उपरोक्त तीन में से किसी एक विकल्प को अमल में लाना चाहिए. लेकिन, सवाल एक बार फिर से वही है कि हमें कौन से विकल्प का चुनाव करना चाहिए?
माना जाता है कि पाक के साथ बातचीत का कोई परिणाम नहीं निकला है. भारत सरकार कह रही है कि हमारे जवानों पर हमला करने की साजिश रचनेवालों को दंडित किया जायेगा.
बातचीत से तो ऐसा परिणाम नहीं निकल सकता है. इसी तरह यह भी अविश्वसनीय लगता है कि जब प्रधानमंत्री ने दंडित करने की बात कही है, तो उनका आशय बातचीत से रहा होगा. इसलिए फिलहाल हम दोनों देशों के बीच बातचीत की संभावना को खारिज कर देते हैं. अब हमारे पास केवल दो ही विकल्प बचते हैं. भारत और पाकिस्तान के बीच समझौते की पहल करने लिए मध्यस्थता और तीसरे पक्ष को शामिल करना.
लेकिन, इस विकल्प का हमने हमेशा प्रतिरोध किया है. भारत द्वारा बांग्लादेश में 1971-72 की जंग जीतने के बाद, भारत और पाक के नेता- इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो- ने शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किया था. यह समझौता कहता है कि कश्मीर एवं भारत-पाकिस्तान से जुड़े दूसरे मुद्दे अब से द्विपक्षीय मुद्दे होंगे.
इसका यह मतलब हुआ कि दो देशों के बीच के मामले में हमने तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप को अस्वीकृत कर दिया और पाकिस्तान पर इस सिद्धांत को मानने का दबाव बनाया. उस समय इस समझौते को भारत के विजय के तौर पर देखा गया, क्योंकि तब पाकिस्तान कश्मीर पर अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप और मध्यस्थता के लिए खूब प्रयत्न कर रहा था.
दरअसल, जब हमने इस समझौते पर हस्ताक्षर किया था, तब हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि एक समय ऐसा भी आयेगा, जब पाकिस्तान की हरकतों पर लगाम लगाने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि तब हम संयुक्त राष्ट्र को लेकर एहतियात बरतते थे और इस बात पर यकीन करते थे कि पाक के साथ हम अपनी सेना के बल पर निबट लेंगे.
वर्ष 1998-99 तक यह बात सच भी थी, लेकिन जब पहले भारत और उसके बाद पाकिस्तान ने अपनी सैन्य क्षमता को परमाणु शक्ति संपन्न किया, तब से इसके दो परिणाम सामने आये. पहला, उकसावे की कार्रवाई करने पर हम पाक सेना को ज्यादा समय तक आसानी से दंडित नहीं कर सकते. परमाणु युद्ध के खतरे ने हमारे ऊपर ऐसा न करने का दबाव उत्पन्न कर दिया. ऐसी स्थिति में भी भारत अगर पाक के खिलाफ अपनी सेना का इस्तेमाल करता, तो इससे युद्ध लंबा खिंचता और इस पर ज्यादा दिन तक उसका नियंत्रण नहीं रह पाता.
भारत और पाक के सैन्य परमाणु कार्यक्रमों से हमें दूसरे अवांछित परिणाम प्राप्त हुए हैं. आज पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्तों में पूरे विश्व को रुचि है, क्योंकि परमाणु युद्ध कोई द्विपक्षीय मसला नहीं होता है. इससे पूरा विश्व प्रभावित होता है. जब से हमारे देश ने इस बात को समझा है, भारत सरकार इस मामले में सावधानीपूर्वक आगे बढ़ रही है, वह अपनी पारंपरिक स्थिति, जो बाहरी हस्तक्षेप को अस्वीकृत करता है, और इस नवीन सत्य के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रही है.
उधर 9/11 हमले के बाद से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव का दूसरा पक्ष सामने आया. आज पूरा विश्व जिहादी आतंकवाद के खिलाफ एकजुट हो चुका है. मौजूदा दौर में विश्व की सरकारों ने आतंक से लड़ने के लिए काफी कड़ा रुख अपनाया है, लेकिन अब भी ऐसा करने के लिए वास्तविक इच्छा का अभाव है. पाक को दंडित करने के लिए वैश्विक साथ पाने की चाह रखनेवाले भारत के सामने आज यही सच सामने आ खड़ा हुअा है.
मोदी सरकार यह वादा कर रही है कि वह पिछली सरकार से कुछ अलग करेगी. क्या इसके लिए उसके पास अनेक विकल्प हैं?
अगर दोनों देशों के बीच युद्ध हुआ, तो हमारा इस पर नियंत्रण नहीं रह जायेगा. हमारे पास अब भी दो विकल्प हैं. पहला, रणनीतिक तौर पर पाक को अलग-थलग करने की कोशिश की जाये. अगर पूरी दुनिया हमें एक एेसे पीड़ित देश के तौर पर देखेगी, जिसने संयम बनाये रखा है, तो वह पाकिस्तान पर आतंक के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव डालेगी. दूसरा, हम पाकिस्तान के साथ पूरी आक्रामकता के साथ बातचीत करें और उसे जिम्मेवारी उठाने के लिए राजी कर दें.
इन दोनों विकल्पों के लिए हिम्मत और परिपक्वता चाहिए.इन दोनों ही विकल्पों के लिए जरूरी है कि पाक सेना को सबक सिखाने को लेकर हमारे अंदर वर्तमान में जो गुस्सा उबल रहा है, उसे हम पी जायें. हालांकि, इन दोनों विकल्पों को आजमाने के बाद हमे सफलता मिल जायेगी, न तो इस बात की कोई गारंटी है, न ही युद्ध के विकल्प से ऐसी गारंटी मिल सकती है. यदि नरेंद्र मोदी की जगह वॉन क्लाउसेविट्ज होते, तो वे अपने विकल्पों पर बिना किसी भावुकता के विचार करते तथा अपने पक्ष के लिए उचित और सबसे लाभप्रद विकल्प का आकलन करते.

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