नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुटजेन ने कहा है कि औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से लेकर नयी शताब्दी के शुरू होने तक मानव के क्रियाकलापों से वातावरण में मिथेन की मात्रा दोगुनी हो गयी है और कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) की मात्रा तीस प्रतिशत बढ़ गयी है, जो कि पिछले चार लाख सालों में नहीं देखा गया.
मानव ने अपने क्रियाकलापों से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी), जिसमें मुख्य हैं कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड (एन2ओ) और क्लोरोफ्लोरोकार्बन, को खूब झोंका है, जिसकी वजह से कहा जाता है कि ग्लोबल वॉर्मिंग हो रही है. ग्रीनहाउस गैस हमारे औद्योगिक क्रियाकलापों से तो पैदा होते ही हैं, लेकिन आम धारणा के विपरीत खेती और पशुपालन भी इनके उत्सर्जन में पीछे नहीं हैं. दोहराव से बचने के लिए इस लेख में उत्सर्जन की मात्रा ‘करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य ग्रीनहाउस गैस’ में दिया गया है.
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेटिक चेंज द्वारा जारी 2010 के आंकड़ों के अनुसार, विश्व स्तर पर ग्रीनहाउस गैस के कुल उत्सर्जन का 76 प्रतिशत हिस्सा कार्बन डाइऑक्साइड, 16 प्रतिशत मिथेन, 6 प्रतिशत नाइट्रस ऑक्साइड तथा 2 प्रतिशत फ्लोरिनेटेड गैस हैं. 76 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड में से 65 प्रतिशत खनिज तेलों के जलने और औद्योगिक क्रियाकलापों से तथा 11 प्रतिशत वानिकी और खेती से आता है, जबकि मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का बड़ा हिस्सा खेती से आता है. कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले मिथेन 21 गुना और नाइट्रस ऑक्साइड 310 गुना ज्यादा प्रभावकारी है ग्लोबल वार्मिंग की प्रक्रिया में. मिथेन के प्रमुख स्रोत हैं दलदली जमीनें, कार्बनिक चीजों का सड़ना-गलना, दीमक, नेचुरल गैस, जैविक वस्तुओं का जलना, धान की खेती, जुगाली करनेवाले जानवर तथा कूड़े के ढेर आदि. जुगाली करनेवाले पशु पाचनतंत्र के ऊपरी भाग रुमेन में ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में चारे को पचाने की प्रक्रिया में मिथेन का उत्पादन (एंटेरिक उत्सर्जन) करते हैं. धान की खेती, खाद भंडारण, खेतों और चारागाहों में पशुओं के मल के सड़ने आदि से भी मिथेन बड़ी मात्रा में पैदा होती है. अगर विश्व स्तर के आंकड़ों को देखें, तो वर्ष 2010 में कुल उत्सर्जन में से 24 प्रतिशत योगदान कृषि क्षेत्र ने किया.
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा मई 2010 में 2007 के आंकड़ों के साथ इंडियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज असेसमेंट प्रकाशित किया गया था. उसके अनुसार देश में खेती 33.44 करोड़ टन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के साथ 17.6 प्रतिशत उत्सर्जन में योगदान कर रही थी. महत्वपूर्ण आंकड़ा यह है कि सभी प्रकार के पशुओं का एंटेरिक उत्सर्जन 21.21 करोड़ टन तथा धान की खेती से उत्सर्जन 6.98 करोड़ टन, खेती से कुल उत्सर्जन का क्रमश: 63.4 तथा 20.9 प्रतिशत था.
फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के आंकड़ों के अनुसार, 2011 में भारत के गोरू वर्ग के जुगाली करनेवाले मवेशियों द्वारा 5.46 करोड़ मैट्रिक टन ग्रीनहाउस गैसों का एंटेरिक उत्सर्जन हुआ, जो विश्व स्तर पर हुए इस प्रकार के उत्सर्जन का 14 प्रतिशत था. ऐसा अनुमान है कि भारत में यह उत्सर्जन 2050 में बढ़ कर 8.16 करोड़ मैट्रिक टन हो जायेगा और विश्व स्तर पर अनुमानित ऐसे उत्सर्जन का 17.94 प्रतिशत हो जायेगा. सबसे गंभीर बात यह है कि मवेशियों द्वारा खेतों या चारागाहों में किये गये मल के सड़ने से वर्ष 2011 में 7.06 करोड़ मैट्रिक टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ, जिसके वर्ष 2050 में बढ़ कर 9.56 करोड़ मैट्रिक टन हो जाने का अनुमान है.
अगर सभी प्रकार के जुगाली करनेवाले मवेशियों को लें, तो वर्ष 2011 में कुल 30.43 करोड़ मैट्रिक टन ग्रीनहाउस गैसों का एंटेरिक उत्सर्जन हुआ, जिसके वर्ष 2050 तक बढ़ कर 34.29 करोड़ मैट्रिक टन हो जाने का अनुमान है. अगर देश के खेती सेक्टर को लें, तो वर्ष 2011 में कुल उत्सर्जन 66.07 करोड़ मैट्रिक टन का हुआ और 2050 तक इसके बढ़ कर 78.11 करोड़ मैट्रिक टन होने का अनुमान है. विश्व स्तर पर उत्सर्जन के मुकाबले यह वर्ष 2011 में 12.38 प्रतिशत था, जो 2050 तक मामूली गिरावट के साथ 12.24 प्रतिशत पर बना रह सकता है. पशुपालन के बाद धान की खेती एक दूसरा बड़ा स्रोत है ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का. भारत में 2011 में धान की खेती से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 9.74 करोड़ मैट्रिक टन था. यह विश्व स्तर पर हुए उत्सर्जन का 18.66 प्रतिशत था.
ये आंकड़े यह भ्रम दूर करने के लिए काफी हैं कि खेती और पशुपालन पर्यावरण-मित्र गतिविधियां हैं. यह बात स्थापित है कि हमारा कृषि उत्पादन तंत्र बहुत ही अकुशल है. खेती ज्यादा संसाधन और ऊर्जा खाती है, लेकिन उसके मुकाबले उसकी उत्पादकता और उत्पादन बहुत कम है. जल और जमीन के उचित प्रबंधन का अभाव भी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में अपना भरपूर योगदान करता है. यही हाल पशुपालन के मामले में है. हर प्रकार के पशु-आधारित उत्पादन में हमारी उत्पादकता और उत्पादन बहुत कम है अत: ऊर्जा का जबरदस्त ह्रास होता है. एफएओ के ही आंकड़ों के अनुसार, गोरू और भैंस वर्ग के पशुओं की प्रति हेक्टेयर जनसंख्या वर्ष 2011 में भारत में जहां 1.80 थी, विश्व स्तर पर यही आंकड़ा 0.32 था. स्पष्ट है कि पशुओं के मामले में हमारे पास उत्पादकता आधारित जनसंख्या संवर्धन और नियंत्रण नीति का सर्वथा अभाव है. मवेशियों से उत्सर्जित होनेवाले ग्रीनहाउस गैसों का लगभग 39 प्रतिशत जुगाली करने से तथा 10 प्रतिशत खाद सड़ने से आता है. एफएओ के अनुसार, पशुपालन को वैज्ञानिक ढंग से संचालित कर तथा बायोगैस आदि का उपयोग करके, कंपोस्टिंग अपना कर मवेशियों से होनेवाले उत्सर्जन में तीस प्रतिशत की कमी लायी जा सकती है.
खेती और पशुपालन की उत्पादकता बढ़ने से जहां इन क्षेत्रों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी आयेगी, वहीं किसान भी समृद्ध बनेगा. खेती और पशुपालन में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का प्रबंध व उस पर नियंत्रण ही किसानों को खुशहाली की ओर ले जायेगा और यह रास्ता विज्ञान से होकर जाता है.
बिभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
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