कैग रिपोर्ट से आगे मनरेगा

।। अश्विनी कुमार ।।(प्रोफेसर, टीआइएसएस)– कैग का परीक्षण वित्तीय दृष्टिकोण से मनरेगा की कमियों को उजागर करता है, वहीं दूसरी तरफ इसकी ऐतिहासिक सफलताओं को नजरअंदाज करता है. – मनरेगा पर आयी महालेखा परीक्षक- कैग की रिपोर्ट भ्रष्टाचार की खबरों और योजना के राजनीतिक इस्तेमाल को लेकर आम धारणा को पुख्ता करती है. कैग ने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 16, 2013 1:30 PM

।। अश्विनी कुमार ।।
(प्रोफेसर, टीआइएसएस)
– कैग का परीक्षण वित्तीय दृष्टिकोण से मनरेगा की कमियों को उजागर करता है, वहीं दूसरी तरफ इसकी ऐतिहासिक सफलताओं को नजरअंदाज करता है. –

मनरेगा पर आयी महालेखा परीक्षक- कैग की रिपोर्ट भ्रष्टाचार की खबरों और योजना के राजनीतिक इस्तेमाल को लेकर आम धारणा को पुख्ता करती है. कैग ने मनरेगा के आर्थिक और सामाजिक प्रभावों पर चर्चा के बजाय इसकी वित्तीय ऑडिटिंग पर अधिक ध्यान दिया है.

जहां प्रगतिशील और सामाजिक आंदोलन से जुड़े लोग मनरेगा को भारतीय समाज में आमूल-चूल परिवर्तन की नीति के तौर पर देखते हैं, वहीं दूसरी ओर नवउदारवादी और कॉरपोरेट वर्ग इसे अधपका समाजवाद और वित्तीय अराजकता के रूप में देखता है. मेरा मानना है कि अगर मनरेगा काम के अधिकार का सबसे ऐतिहासिक कानून है, तो संघीय राजनीति के संदर्भ में इसका क्रियान्वयन लोकतंत्र के गहरेपन को दर्शाता है.

लोक-कल्याणकारी नीतियों के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार की चर्चा नयी बात नहीं है. कैग का परीक्षण वित्तीय दृष्टिकोण से मनरेगा की कमियों को उजागर करता है, वहीं दूसरी तरफ इसके ऐतिहासिक सफलताओं को नजरअंदाज करता है.

विभिन्न स्तरों पर मनरेगा से जुड़े होने के कारण मैं कह सकता हूं कि क्रियान्वयन में कमी की बात सही है. लेकिन साथ ही यह भी सही है कि ग्रामीण भारत में सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक प्रगति और मजदूरों के सशक्तीकरण की आधारशिला रखने का यह ऐतिहासिक मौका भी है. मेरा अनुभव है कि इस कार्यक्रम से कृषि मजदूरी में वास्तविक बढ़ोतरी हुई है.

विशेषज्ञ और नीति-निर्माता इस बात पर सहमत हैं कि मनरेगा पैसों के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के कारण प्रभावित हो रहा है. ग्रामीण आजीविका की सुरक्षा का इसका वादा सत्ता के विकेंद्रीकरण और ग्रामीण गरीब की लामबंदी में निहित है. लेकिन इसका कई स्तरीय क्रियान्वयन, केंद्रीकृत व्यवस्था, गवर्नेस का नौकरशाही तरीके से चलना दुर्भाग्यपूर्ण है.

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रलय द्वारा संशोधित मनरेगा 2 शुरू करना जहां एक तरफ मनरेगा की ऐतिहासिक उपलब्धियों को मजबूत करता है, वहीं केंद्रीकृत नौकरशाही और विकेंद्रीकृत सामुदायिक गवर्नेंस के बीच बढ़ते तनाव को भी सामने लाता है. मानें या न मानें मनरेगा की सफलता या विफलता तथाकथित ‘कलेक्टर राज’ के इर्द-गिर्द घूमती है.

केंद्रीय मंत्रालय, सचिवों और प्रगतिशील राजनेताओं के नेक इरादों के बावजूद राज्यों में क्रियान्वयन ‘कलेक्टर राज’ के अक्षम और भ्रष्ट जिला ग्रामीण विकास एजेंसी (डीआरडीए) पर निर्भर है. इसलिए मनरेगा पर आयी कैग रिपोर्ट न ही अचंभित करती है, न ही यह कोई पूर्वानुमान है.

मनरेगा के क्रियान्वयन पर कैग की 2008 की रिपोर्ट में भी निगरानी करने में मंत्रालय की विफलता और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा योजना की अनदेखी करने को लेकर सवाल उठाये गये थे. कैग ने तब राज्यों द्वारा क्षमता निर्माण में कमी को क्रियान्वयन की असफलता का महत्वपूर्ण कारण माना था.

कैग की 2013 की रिपोर्ट 2008 की ही तरह भ्रष्टचार और गरीब मजदूरों को नजरअंदाज करने की बात को दोहराती है. औसत काम का घट कर 47 दिन होना योजना के प्रति राज्य और जिला प्रशासन के कम होते उत्साह को दिखाता है. ध्यान देने की बात है कि नरेगा में बढ़ती हुई पारदर्शिता और सोशल ऑडिटिंग के नये सुधार की वजह से भी खर्च कम होता दिख रहा है.

कैग रिपोर्ट उन जिलों की तरफ हमारा ध्यान नहीं आकर्षित करती है, जहां भ्रष्टाचार की घटनाओं में ह्रास के प्रमाण मिले हैं. आंध्र प्रदेश और राजस्थान के कुछ जिलों में जहां मनरेगा पर औसतन 400 करोड़ खर्च होते थे, वहां बढ़ती पारदर्शिता की वजह से खर्च आधा हो गया है. इससे काम के औसत दिनों पर भी असर पड़ा है.

मनरेगा के तहत 4070 करोड़ रुपये का अधूरा काम निश्चित तौर पर एक बड़ी कमी है. कैग की रिपोर्ट के अनुसार अब तक इस योजना पर 1.5 लाख करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके है. लेकिन, 14 राज्यों में 1.26 लाख करोड़ रुपये के कामों में महज 30 फीसदी काम ही पूरा हो पाया है. कैग के आंकड़े दर्शाते हैं कि बिहार, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश जैसे तीन राज्यों में जहां देश के कुल गरीबों का 46 फीसदी रहते हैं, वहां इस मद में केवल 20 फीसदी फंड का ही आवंटन किया गया.

कैग की यह आलोचना सही है कि गरीब राज्य मनरेगा के फंड का सही उपयोग नहीं कर पाये. हालांकि बिहार में 2012-13 में 37 दिनों का औसत काम मिला है. नीतीश कुमार आज भी लालू प्रसाद के प्रशासनिक कुशासन की विरासत से संघर्ष करते दिखायी दे रहे है.

कैग ने 38 हजार लाभार्थियों का साक्षात्कार लिया. 75 फीसदी ने माना कि उनके गांवों में सोशल ऑडिटिंग का काम कभी नहीं हुआ. मैं इस विश्‍लेषण से सहमत हूं कि ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता वाली वैधानिक संस्था सेंट्रल एंप्लायमेंट गारंटी काउंसिल एक अक्षम संस्था बन कर रह गयी है और योजना के लागू होने के 6 साल बाद भी मूल्यांकन और निगरानी करने में असफल हुई है. इस दिशा में मंत्रालय का एक स्वतंत्र संस्था गठित करने का प्रयास सराहनीय है.

निश्चित तौर पर पंचायतों में ‘बोलेरो सिंड्रोम’ देखा जा रहा है, जहां सरपंच आरामदायक बोलेरो गाड़ी की पिछली सीट पर बैठकर चलता और आराम करता है और मनरेगा के धन की लूट करता है, लेकिन कैग रिपोर्ट ने मनरेगा के कारण कृषि मजदूरों के मोलभाव की बढ़ी ताकत को नजरअंदाज किया है. साथ ही इस बात की भी अनदेखी की है कि लाखों छोटे और सीमांत किसानों को मनरेगा के कारण काफी फायदा हुआ है.

मनरेगा को प्रभावशाली बनाने के लिए सेंट्रल एंप्लॉयमेंट गारंटी काउंसिल को मजबूत बनाना होगा. साथ ही केंद्र और राज्य के बीच परस्पर सहयोग को बेहतर करने पर भी जोर देने की आवश्यकता है. मनरेगा के सफल क्रियान्वयन के लिए केंद्र सरकार को योजना की निगरानी और शिकायत निवारण के लिए एक लोकपाल का गठन करना चाहिए, क्योंकि मौजूदा एमआइएस प्रणाली पूरी तरह असफल साबित हो चुकी है.

यही नहीं राष्ट्रीय लोकपाल में सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी शामिल कर इसे पूरी तरह स्वतंत्र बनाना चाहिए. इसके अलावा मनरेगा की खामियों को दूर करने के लिए जिलों में कलेक्टर की भूमिका खत्म कर पंचायतों को सशक्त बनाने की आवश्यकता है. कैग रिपोर्ट की यह सुखद बात रही कि मनरेगा से कृषि पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव की बात नहीं की गयी.

हमें ध्यान रखना चाहिए कि मनरेगा के बावजूद कृषि उत्पादन बढ़ रहा है. रिपोर्ट से स्पष्ट तौर पर जाहिर होता है कि कृषि और मनरेगा के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है. कैग रिपोर्ट की खामी यह भी है कि उसने पंचायतों की क्षमता पर ध्यान नहीं दिया. कैग की रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि यह योजना गरीब, मजदूरों के लिए आशा का एक मात्र उम्मीद रही है.

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