यह तटस्थ रहने का वक्त नहीं है

‘नमक की व्यवस्था तो कर दी, रोटी की व्यवस्था कब करेंगे?’ लखीसराय जिले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की संकल्प यात्रा में शामिल होने आयी भारी भीड़ के बीच यह मांग करता सफेद बैनर एक विक्षेप ही था. लेकिन आज बिहार में ऐसे अनेक विक्षेप हैं और मीडिया का ध्यान भी खींचते हैं. जाति, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 5, 2014 3:55 AM

‘नमक की व्यवस्था तो कर दी, रोटी की व्यवस्था कब करेंगे?’ लखीसराय जिले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की संकल्प यात्रा में शामिल होने आयी भारी भीड़ के बीच यह मांग करता सफेद बैनर एक विक्षेप ही था. लेकिन आज बिहार में ऐसे अनेक विक्षेप हैं और मीडिया का ध्यान भी खींचते हैं. जाति, भ्रष्टाचार, अपराध और सांप्रदायिकता से जुड़े बहुस्तरीय चेतना से ग्रस्त समाज में नीतीश एक अप्रतिम राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं. भाजपा से गंठबंधन तोड़ने के तीन महीने बाद 14 सभाओं के जरिये हो रहा उनका जनसंपर्क कार्यक्रम किसी भी मानदंड से बहुत कामयाब रहा है. लखीसराय में हुई इस श्रृंखला की नौवीं सभा में लोगों की प्रतिक्रिया बहुत जबर्दस्त थी.

हालांकि, भीड़ की संरचना में बदलाव साफ दिख रहा थी. भाजपा-जदयू गंठबंधन के दौर से उलट, इस भीड़ में ऊंची जातियों के संभ्रांत व समृद्ध लोगों की अनुपस्थिति तथा पिछड़ी जातियों की बड़ी भागीदारी स्पष्ट थी. रैली में आने का कारण पूछने पर रामचंद्र ठाकुर ने कहा, ‘मैं बाल काटने की दुकान (सैलून) बंद कर इसमें आया हूं. उन्होंने हमारे जैसे लोगों के लिए बहुत काम किया है.’ उसका कथन नीतीश सरकार के कामकाज पर फैसले जैसा था. ठाकुर की बात पर उसके जैसी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आनेवाले अनेक लोगों ने अपनी सहमति दी. लेकिन भावावेश में निर्णय देना आम बिहारी विशेषता है, जो समाज के किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं है. ठेके पर काम कर रहे लोगों द्वारा सफेद बैनर के माध्यम से की गयी खुद को नियमित करने की मांग में इसे देखा जा सकता है, जिन्होंने सुशासन देने के अपने ‘संकल्प’ को दुहराते मुख्यमंत्री के कार्यक्रम में अपने असंतोष को अभिव्यक्ति दी.

नीतीश का यह संकल्प भी साधारण नहीं है. पिछले तीन साल से वे ऐसे वादे किये जा रहे हैं, जो पहली नजर में ही सनक से भरे दिखते हैं. मसलन, उन्होंने बिहार को विद्युत-अधिशेष राज्य बनाने का वादा किया था, जबकि राज्य में बिजली का उत्पादन नहीं हो रहा था. ऐसे में बिजली मिलती कहां से? लेकिन नीतीश ने राज्य के ठप पड़े बिजली-उत्पादन संयंत्रों को चालू कर और यहां चल रहे केंद्र के नियंत्रणवाले संयंत्रों से राज्य का हिस्सा लेकर रास्ता निकाल लिया. अंधेरे में रहनेवाले क्षेत्र के रूप में बनी बिहार की छवि अब काफी हद तक बदल गयी है. लखीसराय में बिजली की आपूर्ति लगभग निर्बाध है. मुंगेर से सांसद राजीव रंजन सिंह (ललन सिंह) कहते हैं कि अब लोग सड़क की नहीं, ट्रांसफॉर्मर की मांग करते हैं, ताकि बिजली की आपूर्ति सुचारु रूप से हो. लखीसराय इसी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है. राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में भी कई घंटे बिजली की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित की गयी है, जिसे कुछ समय पहले तक सोचना भी मुमकिन नहीं था.

नीतीश का दूसरा संकल्प तो और भी चुनौतीपूर्ण है. उन्होंने आलसी, लोलुप और टांग अड़ानेवाली नौकरशाही से भ्रष्टाचार मिटाने का वादा किया है. पहली बार उन्होंने भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारी को बर्खास्त करने की व्यवस्था लागू की है. ऐसे मजबूत कदम का स्पष्ट उद्देश्य नौकरशाही के निचले स्तर, प्रखंड स्तर, में भय पैदा करना है, जो अकसर शासन और योजनाएं लागू करने में अड़ंगा डालता है. स्वाभाविक रूप से इस पहल ने बड़े पैमाने पर सरकारी कर्मचारियों में असंतोष पैदा किया है, जो भ्रष्टाचार और कामचोरी को सरकारी नौकरी का हिस्सा मानते हैं. लेकिन बिहार में कुछ भी बिना विरोध के नहीं होता. पटना के बतकही समूहों में सरकारी पहलों को लेकर नाराजगी देखी जा सकती है. एक वरिष्ठ नौकरशाह का कहना है कि सिर्फ छोटे अधिकारियों को ही दंडित किया जा रहा है, जबकि उच्च स्तर के अधिकारी बच जा रहे हैं. उनके अनुसार यह सब बिना किसी दूरगामी परिणाम के महज छवि चमकाने के लिए किया जा रहा है. ऐसे विचार जमीनी सच्चाई की जगह बिहारी अभिजन की गहरी निराशा को अभिव्यक्त करते हैं. हालांकि राज्य की अर्थव्यवस्था में वृद्धि के साथ भ्रष्टाचार में भी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इसके साथ अधिकारों के प्रति जागरूकता भी तेजी से बढ़ी है. ऐसे में एक विशिष्ट स्थिति पैदा हुई है, जिसमें आलसी और भ्रष्ट नौकरशाही के तंत्र द्वारा प्रभावी शासन के लिए लोगों की आकांक्षाओं का जबरदस्त प्रतिरोध हो रहा है.

इस असमंजस को नीतीश से बेहतर कोई नहीं समझता. पिछले एक महीने से वे बिहार में राजनीति की नयी रूपरेखा खींचने के कई संकेत दे रहे हैं. मसलन, उनका यह स्पष्ट मानना है कि अगर लोकसभा चुनाव में उनके दल की हार हुई, तो उनकी सरकार दस दिन भी नहीं चल सकेगी. अपनी सभाओं में उन्होंने बार-बार कहा है कि लोग भ्रम में न रहें कि लोकसभा के लिए मतदान विधानसभा के मतदान से अलग होंगे. यह तेवर भाजपा के निरंतर प्रचार को रोकने के लिए है, जिसमें कहा जा रहा है कि पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी केंद्र के लिए सबसे उपयुक्त होंगे, जबकि नीतीश बिहार के लिए सही हो सकते हैं. नीतीश के संदेश के निहितार्थ को समझना मुश्किल नहीं है. उनका संकेत राज्य में राजनीतिक अनिश्चितता की उस स्पष्ट संभावना की ओर है, जो आम चुनाव में उनके दल की हार से उत्पन्न हो सकती है. ऐसी स्थिति बिहार के लोगों के लिए भयावह हो सकती है, जो अतीत के लौटने से भयभीत रहते हैं. इस भय को पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद द्वारा भ्रष्टाचार के मामले में दोषी पाये जाने और झारखंड में जेल जाने के बाद जातिगत एवं सांप्रदायिक आधार पर सहानुभूति लेने की कोशिश से बल मिला है.

जनसंपर्क अभियान के साथ-साथ नीतीश ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को समुचित चुनौती देने के लिए एक फेडरल फ्रंट बनाने की पहल भी की है. उनकी दृष्टि में इसमें जदयू, सपा, जनता दल (सेकुलर), अन्ना द्रमुक, झारखंड विकास मोरचा, सीपीआइ और सीपीएम जैसे दल होंगे. क्या यह कांग्रेस और भाजपा के विरुद्ध प्रभावी मोरचा होगा? इस सवाल पर नीतीश का जवाब है कि यह मोरचा मौजूदा बहस के बरक्स एक विकल्प देगा और सभी दल गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा शक्तिशाली विकल्प खड़ा करने के लिए एक-दूसरे का साथ देंगे. वे कहते हैं, ‘मैं कोई साधारण नहीं, बल्कि एक परिवर्तनगामी लड़ाई लड़ रहा हूं.’ वे आगे कहते हैं, ‘मैं बिहार के बदलाव के लिए संघर्षरत हूं तथा पक्ष चुनने और तटस्थता छोड़ने का समय आ गया है.’ मेरे साथ बातचीत समाप्त करते हुए वे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पंक्ति उद्धृत करते हैं- ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध.’

संकेत साफ है कि देश के राजनीतिक भविष्य की कुंजी बिहार में होनेवाले 2014 के चुनावी संग्राम के हाथ में होगी.

।। अजय सिंह।।

(एडिटर, गवर्नेस नाउ)

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