पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
एक सप्ताह पहले उड़ी में हुए कायराना हमले में हमारे 18 जवान शहीद हो गये. वर्ष 2002 के बाद पहली बार इतनी बड़ी संख्या में हमारे जवान हताहत हुए हैं. इसमें चार फिदाइन भी मारे गये, जो निःसंदेह लश्कर-ए-तैयबा के थे. इस पूरे हमले में पाकिस्तान की मिलीभगत बिल्कुल साफ है.
यह हरकत अनेक मायनों में युद्ध की घोषणा की तरह ही थी. पूरे देश ने एकजुट होकर पाकिस्तान की भर्त्सना की है. अब सरकार पाकिस्तान को संदेश देने के लिए जो भी जवाबी कार्रवाई करती है, उसके प्रति हमारा समर्थन है. लेकिन, सभी विवेकपूर्ण भारतीयों को सरकार से यह उम्मीद रखने का अधिकार सुरक्षित रखना होगा कि जवाब सावधानीपूर्वक सोच-विचार कर, रणनीतिक योजना बना कर, दीर्घकालीन समुचित और संतुलित कार्रवाई के रूप में हो.
भाजपा के भीतर से ही कई महत्वपूर्ण लोगों ने सरकार से जवाब-तलब करने के अधिकार को राष्ट्र-विरोधी कृत्य करार दिया है. स्पष्टरूप से, लोकतंत्र में सही सवाल पूछने को सही जवाब तलाशने में रचनात्मक सहयोग के तौर पर देखा जाना चाहिए, न कि फूट के तौर पर.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव के समय यही भाजपा, खासतौर पर नरेंद्र मोदी, जान-बूझ कर, अक्सर तोड़-मरोड़ कर यूपीए की पाकिस्तान नीति की आलोचना करते थे. अपनी अनगिनत रैलियों में मोदी ने पाकिस्तान के साथ ‘नरमी’ से पेश आने के लिए यूपीए का मजाक उड़ाया था. उन्होंने यह भी वादा किया था कि अगर वे सत्ता में आये, तो पाकिस्तान को सबक सिखायेंगे और एक के बदले दस सिर वापस भेजेंगे. अगर भाजपा देश की पाक-नीति की इतनी तीखी आलोचना कर सकती थी, तो आज विपक्ष सत्तारूढ़ भाजपा की नीतियों की पड़ताल क्यों नहीं कर सकती है?
वस्तुतः उड़ी हमले के बाद विपक्ष ने भाजपा की तुलना में बहुत अधिक भाषायी संयम बरता है. लेकिन, कुछ ऐसे प्रश्नहैं, जिनका जवाब दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर देना बहुत जरूरी है. पठानकोट एयरबेस और उड़ी के 12 ब्रिगेड कैंप जैसे अतिसुरक्षित क्षेत्रों में आतंकी घुस कैसे गये? इन आतंकी घटनाओं के बाद खुफिया, निगरानी और सुरक्षा को लेकर जवाबदेही तय करने की जरूरत है. सच है कि हर आतंकी हमले को रोकना संभव नहीं है, लेकिन रक्षा मंत्री पर्रिकर ने खुद स्वीकारा है कि हमारी ओर से कुछ गलतियां हुई हैं. मौजूदा सरकार को चाहिए कि वह जिम्मेवारी के साथ इसकी पूरी जांच करे और चूक को दूर करने का ठोस प्रयास करे.
सबसे पहले देश की आंतरिक व्यवस्था को चाक-चौबंद करने की जरूरत है. नियंत्रण रेखा पर मौजूद अपने सैन्य बलों की मौजूदगी को सशक्त बनाने और उन्हें जरूरी साजो-सामान उपलब्ध कराने की जरूरत है.
दूसरा, हमारे खुफिया तंत्र को बेहतर और चौकस करना होगा. तीसरा, सेना घाटी में कानून-व्यवस्था की जिम्मेवारियों से मुक्त किया जाये, ताकि वे सीमा की सुरक्षा का काम अंजाम दे सकें, जिसके लिए वे प्रशिक्षित हैं तथा आतंक-विरोधी कार्रवाइयों पर पूरा ध्यान दे सकें. इसके लिए घाटी में अमन-चैन बहाल करने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया फिर से शुरू करने की जरूरत है. यह आसान काम नहीं है, लेकिन भाजपा ने अपने 11 पन्नों की कार्यसूची में पीडीपी के साथ गंठबंधन के समय सार्वजनिक तौर पर इसका वादा किया है. अब यह साफ होता जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी सरकार इस जिम्मेवारी को नहीं निभा सकती है.
दूसरा प्रमुख कदम यह होगा कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को एक आतंकी राष्ट्र के तौर पर अलग-थलग कर दिया जाये. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र की महासभा में इसकी शुरुआत हो चुकी है, लेकिन इसके लिए महज दमदार भाषण ही काफी नहीं होगा.
इसके लिए विश्व की बड़ी ताकतों, खासकर अमेरिका और चीन, के साथ लगातार गंभीर बातचीत कर आतंक को प्रायोजित करने की पाकिस्तान की राजकीय नीति के विरुद्ध माहौल बनाना होगा और बताना होगा कि पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद के मुख्य केंद्र के रूप में उभरने से दुनिया को खतरा है. हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे आतंकी, जिनके सिर पर संयुक्त राष्ट्र ने इनाम रखा है, पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे हैं और इनकी आतंकी गतिविधियों का शिकार केवल भारत ही नहीं, बल्कि अफगान और बांग्लादेश भी हो रहे हैं.
इन प्रयासों के साथ पाकिस्तान से उसकी धरती से आनेवाले आतंक के अलावा अन्य किसी भी विषय पर द्विपक्षीय वार्ता नहीं होनी चाहिए. सार्क सम्मेलन में शिरकत से भी कुछ समय के लिए परहेज करना चाहिए. बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन पर भी हमें विश्व का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करते रहना चाहिए.
पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशन के दर्जे को वापस लेने और सिंधु नदी जल समझौते को रद्द करने की बात हो रही है. ऐसे निर्णयों से पहले ठीक से विचार करना होगा. कोई भी कदम उठाने से पहले बड़ी सावधानी बरती जानी चाहिए, ताकि बाद में किसी तरह की अड़चन न पैदा हो.