इंसाफ और कानून का राज
पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐसे फैसले सुनाये हैं, जिन्होंने हर सतर्क जिम्मेवार नागरिक को यह सोचने को मजबूर किया है कि क्या इंसाफ करने ने कानून के राज की जड़ों को चाहे-अनचाहे कमजोर नहीं कर दिया है? यह गंभीर विषय है, क्योंकि कानून का राज ही जनतंत्र की […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐसे फैसले सुनाये हैं, जिन्होंने हर सतर्क जिम्मेवार नागरिक को यह सोचने को मजबूर किया है कि क्या इंसाफ करने ने कानून के राज की जड़ों को चाहे-अनचाहे कमजोर नहीं कर दिया है? यह गंभीर विषय है, क्योंकि कानून का राज ही जनतंत्र की नींव का पत्थर है.
इधर सुप्रीम कोर्ट अौर केंद्र सरकार के बीच एक ऐसी रस्साकशी चलती रही है, जिसे लेकर दो तरह की आशंकाएं पैदा हुई हैं. क्या यह सरकार न्यायपालिका की स्वाधीनता को मुंठित करना चाहती है? क्या इसीलिए उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति का मुद्दा विवादग्रस्त है? या आज न्यायपालिका खुद अनेकानेक आरोपों के कठघरे में खड़ी है अौर उसकी कार्यप्रणाली नितांत अपारदर्शी ही कही जा सकती है.
कॉलेजियम नामक जिस परंपरा का सूत्रपात सुप्रीम कोर्ट ने किया है, उसका कोई उल्लेख संविधान में नहीं है. विडंबना यह है कि संविधान की व्याख्या का एकाधिकार सुप्रीम कोर्ट को है अौर वह संविधान संशोधन विधेयक तक को निरस्त कर सकता है. लेकिन, यह भी सच है कि सुप्रीम यानी ‘सर्वोच्च’ विशेषण का यह अर्थ नहीं कि सुप्रीम कोर्ट कोई गलती कर ही नहीं सकता या उसके किसी फैसले की आलोचना की ही नहीं जा सकती.
दुर्भाग्य से अदालत की अवमानना विषयक जो कानून हमारे देश में है, वह समसामयिक जनतांत्रिक मान्यताअों के प्रतिकूल है. इसी आतंक के मारे किसी का साहस इंसाफ अौर कानून के राज के द्वंद्व वाली बहस को गरमाने का नहीं हो रहा है.
एक नजर उन फैसलों पर, जिनको लेकर यह सवाल बेचैन कर रहा है. पहला आदेश कावेरी जल विवाद वाला है, जिसके विरोध में कर्नाटक विधानसभा के दोनों सदनों ने प्रस्ताव पारित किया है कि वहां की सरकार इस आदेश का पालन नहीं कर सकती. तर्क है कि जलाशयों में पानी है ही नहीं, इसलिए तमिलनाडु के लिए पानी नहीं छोड़ा जा सकता. इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट एक से अधिक बार फटकार चुका है कि कानून की ताकत को कमतर न आंके.
दरअसल, संविधान की व्यवस्था के अनुसार विधायिका अपने कार्यक्षेत्र में संप्रभु है. सदन की कार्यवाही को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने भी एक अभियुक्त की सजा के संदर्भ में एक प्रस्ताव पारित कर अदालत के फैसले को विवादग्रस्त बताने की चेष्टा की थी. संसद अौर राज्य विधानसभाएं एकाधिक बार न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन से बचने की सलाह (चेतावनी?) दे चुकी हैं.
कार्यपालिका हाल के वर्षों में लगातार न्यायपालिका के अंकुश के अधीन काम करने को मजबूर रहा है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समितियां अौर विशेष जांच टीमें सीधे उसे ही रिपोर्ट पेश करती हैं. अपनी जिम्मेवारी अौर जवाबदेही से बचने के लिए राजनेता (निर्वाचित विधायक-सांसद) नौकरशाहों को बलि का बकरा बनाते रहे हैं. न्यायपालिका की सतर्कता की वजह से ही कई ऐसे घोटालों का पर्दाफाश हो सका है, जिनमें नेता अौर नौकरशाह दोनों लिप्त थे. अरुणाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड में भी न्यायपालिका ने शायद इंसाफ तो किया, पर इसके दूरगामी नतीजे कानून के राज के लिए जोखिम ही पैदा कर सकते हैं.
माफिया सरगना अौर चार बार सांसद रहे शहाबुद्दीन की जमानत खारिज करने के फैसले का देशव्यापी स्वागत हुआ है, पर लोग यह सोचने को भी बाध्य हुए हैं कि क्या न्यायपालिका इतना तुरत-फुरत इंसाफ करती, यदि मीडिया ने खुद समानांतर सुनवाई शुरू नहीं किया होता? पटना हाइकोर्ट ने क्या बिना सोच-विचार के ही इस सजायाफ्ता नेता को जमानत दे दी थी?
क्या हर बंदी की जमानत स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकार के आधार पर इतनी सहज होती है? बिहार सरकार के शराबबंदी वाले फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है. निश्चय ही यह फैसला बिहार सरकार को यह सोचने को मजबूर करेगा कि क्या जनहित में भी कोई निर्वाचित सरकार अपने चुनावी वादों को पूरा करने के बहाने ऐसे कानून पारित कर सकती है, जो पहली नजर में ही असंवैधानिक हों?सुप्रीम कोर्ट अपने विवेकानुसार तय करता है कि किस याचिका की सुनवाई को प्राथमिकता दे.
सहाराश्री सुब्रत रॉय के प्रति जनसाधारण की स्वाभाविक सहानुभूति नहीं, पर बहुतों को यह बात अटपटी लगती है कि किस आरोप में उन्हें बंदी बनाया गया है अौर फिर कैसे निरंतर पेरौल/जमानत पर रिहा रखा जाता रहा है? जो सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकारों को फटकार सुनाते नहीं हिचकता, वह बीसीसीआइ के मामले में इतना नरम क्यों है? बीसीसीआइ अधिकारी हों या उनके पैरवीकार पूर्व न्यायाधीश काटजू कैसे अदालत की अवमानना के आरोपी नहीं बनाये जाते?
अगर देश के नागरिकों के मन में यह धारणा घर करने लगी कि इंसाफ के तराजू के दोनों पलड़े दो अलग-अलग मानदंडों या तुनकमिजाजी के आधार पर झुकते-उठते हैं, तब फिर इंसाफ किये जाने के बावजूद कानून का राज देर तक निरापद नहीं रह सकता.