मानवता के हक में फैसला

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पिछले साल दिसंबर में आयोजित पेरिस सम्मेलन में 191 देशों के बीच राय बनी कि वैश्विक तापमान को किसी भी तरह से आगे 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जा सकता. इसके लिए तय किया गया कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में दुनिया के सारे देश इस सीमा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 4, 2016 6:31 AM

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पिछले साल दिसंबर में आयोजित पेरिस सम्मेलन में 191 देशों के बीच राय बनी कि वैश्विक तापमान को किसी भी तरह से आगे 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जा सकता. इसके लिए तय किया गया कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में दुनिया के सारे देश इस सीमा तक कटौती करें कि तापमान में वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार न कर सके.

यह सहमति पर्यावरणविद् और वैज्ञानिकों की चेतावनी के संदर्भ में बनी थी. पर्यावरण-वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे हैं कि विश्व में बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के कारण निकली गैसों से धरती का तापमान पिछले सौ वर्ष की अवधि में 1 डिग्री सेल्सियस से थोड़ा ज्यादा बढ़ चुका है. यह तापमान और 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ा, तो उसके खतरे भयावह होंगे. ग्लेशियर और ध्रुव-प्रदेश के बर्फ पिघलेंगे, समुद्र तल ऊंचा उठेगा.

विश्व के कई तटवर्ती इलाके समुद्र में समा जायेंगे और बाढ़, सूखा, आगलगी तथा जमीन धंसने की बढ़ती घटनाओं के बीच दुनिया के कई हिस्सों में जीना-रहना दुश्वार होता चला जायेगा. पेरिस सम्मेलन में बनी सहमति के करीब नौ माह बाद भारत ने भी उस पर अपनी मंजूरी दे दी है. बेशक भारत का यह फैसला विश्व मानवता के साझे भविष्य के हक में है, लेकिन विश्व-स्तर पर चल रही जलवायु-परिवर्तन की राजनीति की भी अनदेखी नहीं की जा सकती.

अपनी सुस्त हुई आर्थिक-वृद्धि तथा मंदी से परेशान विकसित मुल्क जलवायु-परिवर्तन को विकासशील देशों की आर्थिक-प्रगति के विरुद्ध एक औजार की तरह बरतना चाहते हैं. विकसित देशों का तर्क है कि सारे देश समान रूप से ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करें. विकासशील देशों का तर्क है कि जो देश ग्रीनहाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करते हैं, कटौती की उसकी जिम्मेवारी बाकी देशों से कहीं ज्यादा है.

ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया में चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर है, लेकिन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से भारत और अमेरिका के बीच तकरीबन दस गुने का अंतर है. भारत में एक व्यक्ति सालाना 2.5 टन से कम कार्बन उत्सर्जन करता है, तो अमेरिका में करीब 20 टन. जलवायु-न्याय का तकाजा है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से जो देश जितना ज्यादा जिम्मेवार है, वह धरती का तापमान बढ़ानेवाली औद्योगिक गतिविधियों में उतनी ही ज्यादा कटौती करे, ताकि संसाधनों की उपलब्धता के मामले में विभिन्न देशों के लोगों के बीच ज्यादा का अंतर न हो.

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